पठान हाकिम खां सूर का बलिदान :- महाराणा प्रताप और हाकीम खां सूर की फौजी टुकड़ियाँ जब मिलीं, तब महाराणा प्रताप युद्धभूमि छोड़ने को तैयार नहीं थे।
हाकीम खां सूर ने परिस्थिति को समझते हुए चेतक की रास अपने हाथ में लेकर उसका रुख पहाड़ियों की तरफ कर दिया। इस घटना से मालूम पड़ता है कि हाकिम खां सूर के लिए महाराणा प्रताप की क्या अहमियत थी।
फारसी तवारिखों में अबुल फजल, बदायूनी, निजामुद्दीन वगैरह ने हाकीम खां सूर के युद्ध मैदान में वीरगति पाने का उल्लेख नहीं किया है, पर मेवाड़ी ख्यातें उनके वीरगति पाने का उल्लेख करती हैं।
प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक बदायूनी ने यहां तक लिखा है कि राणा कीका और हाकिम खां एक साथ जंग का मैदान छोड़कर चले गए।
कहते हैं कि हाकिम खां सूर रक्त तलाई से तीन किलोमीटर दूर वीरगति को प्राप्त हुए, जहां उनका सिर धड़ से अलग हो गया, वहां सिर की मजार बनी हुई है। उस स्थान से उनके पार्थिव शरीर को उनका घोड़ा रक्त तलाई में ले आया।
लेकिन मेरे अनुसार हाकिम खान रक्त तलाई के निकट ही वीरगति को प्राप्त हुए थे। सम्भवतः काफी समय बाद सिर की अलग मजार बनवाकर प्रसिद्ध कर दी गई।
हाकीम खां सूर की वास्तविक मजार रक्त तलाई में स्थित है, जहाँ इन्हें तलवार समेत दफनाया गया, क्योंकि शहीद होने के बाद भी इस अफगान वीर के हाथ से तलवार नहीं छुड़ाई जा सकी।
पठान हाकिम खां सूर के बारे में कहा जाता है कि हल्दीघाटी का पठान वीर, लगाम छूटी न शमशीर। यहां मुगल लेखकों व मेवाड़ के लेखकों की बातें बिल्कुल विपरीत हैं,
लेकिन जब तक इस विषय में कुछ और नए शोध नहीं हो जाते, तब तक निष्कर्ष रूप में यही माना जा सकता है कि हाकीम खां जख्म के चलते घाटी में ऐसी जगह वीरगति को प्राप्त हुए हों जहां बंदायूनी की नजर नहीं पड़ी,
क्योंकि यह लड़ाई केवल खमनौर के मैदान में ही नहीं, बल्कि आसपास के क्षेत्रों में भी हो रही थी। हल्दीघाटी युद्ध के बाद पठान हाकिम खां सूर का कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता है, इसलिए उनके वीरगति पाने का यह भी एक प्रमाण हो सकता है।
स्वामिभक्त चेतक का बलिदान :- चेतक के एक पैर पर राजा मानसिंह के हाथी की सूंड में लगी तलवार से गहरा घाव लगा था।
ग्रंथ नाथावंशप्रकाश के अनुसार मनोहरदास कछवाहा ने ज़ख्मी चेतक पर एक कटारी मारी थी, जिससे चेतक की अवस्था प्राण त्यागने जैसी हो गई थी, परन्तु चेतक पर जिम्मेदारी थी अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा की।
झाला मानसिंह जी ने तो महाराणा प्रताप के प्राणों की रक्षा कर दी, परन्तु महाराणा के अनमोल प्राणों को बचाने का कर्तव्य अभी अधूरा था। महाराणा प्रताप इस बात से अनजान थे कि जख्मी चेतक महज 3 पैरों पर चल रहा है।
आगे एक चौड़ा नाला आ गया। आगे नदियाँ पड़ी अपार, घोड़ा कैसे करावे पार। राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार।।
अपने स्वामी की जान बचाने के बाद चेतक ने एक इमली के पेड़ के नीचे अपना बलिदान दे दिया, तब से उस इमली का नाम खोड़ी इमली पड़ गया।
इस तरह महाराणा प्रताप और चेतक का साथ 1572 ई. से लेकर 1576 ई. तक लगभग चार वर्ष रहा। बलीचा गाँव में स्वामिभक्त चेतक की समाधि स्थित है। चेतक का वास्तविक नाम चेटक है, जो कालांतर में चेतक हो गया।
वर्तमान में स्वामिभक्त चेतक की ख्याति मेवाड़ ही नहीं, बल्कि देश का अन्य राज्यों व विदेशों तक फैली हुई है। महाराष्ट्र के सारंगखेड़ा में स्वामिभक्त चेतक के सम्मान में पिछले 300 वर्षों से चेतक फेस्टिवल मनाया जा रहा है।
महाराणा प्रताप व महाराज शक्तिसिंह का मिलन :- महाराणा प्रताप के पीछे आ रहे खुरासन खां और मुल्तान खां को मारकर शक्तिसिंह जी ने महाराणा से भेंट की व माफी मांगी। हालांकि इस समय महाराणा प्रताप अकेले नहीं थे।
उनके साथ कुछ सामन्त भी थे। महाराज शक्तिसिंह जी ने इस घटना के बाद 18 वर्षों तक महाराणा प्रताप का साथ दिया। महाराणा प्रताप, शक्तिसिंह जी व सामन्तों ने स्वामिभक्त चेतक का अन्तिम संस्कार किया।
महाराणा प्रताप घायल अवस्था में एक मूर्ति के पास आकर रुके। ये मूर्ति भगवान शिव व भगवान विष्णु के सम्मिलित रुप हरिहर की थी। ये मूर्ति वर्तमान में हरिहर मन्दिर में स्थापित है।
महाराणा प्रताप ने इसी मूर्ति के पास बैठकर विश्राम किया और यहीं पर उन्हें सूचना मिली की झाला मान, जिन्हें झाला बींदा भी कहा जाता है, वीरगति को प्राप्त हुए।
महाराणा प्रताप ने झाला बींदा की याद में उस स्थान का नाम बिदराणा रख दिया, जो कालान्तर में बदराणा हो गया। इस स्थान पर मुर्ति की स्थापना करवाकर महाराणा प्रताप ने हरिहर मन्दिर का निर्माण करवाया।
चेतक के देहांत के बाद चेतक की निर्वाण स्थली बलीचा गांव को महाराणा प्रताप ने श्रीमाली सीदड़ (श्रीधर व्यास) को दान में दे दिया। इस दान का ताम्रपत्र भी महाराणा प्रताप द्वारा जारी किया गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)