अक्टूबर, 1577 ई. – शाहबाज़ खां द्वारा एक अन्य फ़ौज की मांग :- 15 अक्टूबर को अकबर ने मेड़ता में स्थित अपने शिविर से शाहबाज़ खां के नेतृत्व में एक विशाल फ़ौज कुम्भलगढ़ दुर्ग को जीतने के लिए रवाना की।
तत्पश्चात अकबर ने पंजाब जाने का निश्चय किया, इसलिए उसने आंबेर होकर दिल्ली की तरफ़ कूच किया। अकबर को मेड़ता से रवाना हुए कुछ ही दिन हुए थे कि तभी शाहबाज़ खां का संदेश आया।
शाहबाज़ खां ने अकबर को पत्र में लिखा कि उसे कुम्भलगढ़ दुर्ग जीतने के लिए घाटियों पर नाकेबंदी करनी है, इसलिए एक और फ़ौज की जरूरत पड़ेगी।
अकबर ने उसी वक़्त शैख़ इब्राहिम फतहपुरी के नेतृत्व में एक फ़ौज शाहबाज़ खां की सहायता के लिए भेज दी। शाहबाज़ खां ने इस फ़ौज को अजमेर-मेवाड़ की सीमा पर स्थित नाडोल में तैनात किया।
इस तरह घाटियों के पश्चिमी सिरों की मज़बूत नाकेबंदी कर दी गई। कुम्भलगढ़ का मार्ग बड़ा कठिन था। एक किंवदंती के अनुसार शाहबाज़ खां को रास्ता नहीं मिला,
पर फूल बेचने वाली एक विश्वासघाती महिला ने उसे कुम्भलगढ़ का मार्ग बता दिया। इस विश्वासघात का पता चलने पर एक भील ने उस महिला को मौत के घाट उतार दिया।
मेवाड़ी सेना द्वारा केलवाड़ा में स्थित मुगल शिविर पर आक्रमण :- शाहबाज खां ने मुगल फौज के साथ कुम्भलगढ़ से कुछ मील दूर स्थित केलवाड़ा में पड़ाव डाला।
महाराणा प्रताप ने एक फ़ौजी टुकड़ी को केलवाड़ा में शाही खेमे पर आक्रमण करने भेजा। अचानक हुए इस हमले को शाही फौज समझ ही नहीं सकी।
इस समय शाही खेमे में राजा मानसिंह कछवाहा, राजा भगवानदास कछवाहा, कुँवर दलपत राठौड़, रामपुरा के दुर्गा सिसोदिया आदि राजपूत भी थे।
मेवाड़ी सेना ने शाही खेमे पर आक्रमण कर 4 मुगल हाथी लूट लिए और कुम्भलगढ़ जाकर महाराणा प्रताप को भेंट किए। बीकानेर के राजा रायसिंह राठौड़ के पुत्र कुंवर दलपत भी इस समय मुगल खेमे में थे।
उन पर आधारित ग्रंथ ‘दलपत विजय’ में लिखा है कि “केलवाड़ा के खेमे में कुँवर मानसिंह को मारने का प्रयास करने वाले एक राजपूत को रामपुरा के दुर्गा सिसोदिया ने पकड़ लिया।”
महाराणा प्रताप द्वारा प्रजा की सुरक्षा के लिए प्रयास :- कुम्भलगढ़ दुर्ग में हज़ारों लोग रहते थे, इसलिए इस युद्ध में उनका जीवन संकट में न आए, इस खातिर महाराणा प्रताप ने उनकी सुरक्षा के इंतजाम शुरू कर दिए।
भामाशाह जी कावड़िया को यह काम सौंपा गया। वे कई लोगों को साथ लेकर सुरक्षित स्थान पर चले गए। लेकिन अब भी किले में कई लोग मौजूद थे।
मुगल फ़ौज द्वारा कुम्भलगढ़ दुर्ग की घेराबंदी :- कुम्भलगढ़ दुर्ग को मेवाड़ का हृदय व मेवाड़ की आंख भी कहा जाता है। इस दुर्ग की सम्पूर्ण घेराबंदी असम्भव थी,
क्योंकि यह किला चित्तौड़गढ़ दुर्ग की तरह किसी एक पहाड़ी पर स्थित नहीं था, बल्कि ये पर्वतों की श्रृंखला पर स्थित है।
यह किला समुद्री सतह से 3568 फीट की ऊंचाई पर बना है, इसलिए जितनी घेराबंदी हो सकी, उतनी घेराबंदी की गई, जिसमें हज़ारों की फ़ौज जगह-जगह मोर्चों पर तैनात की गई।
शाहबाज़ खां ने पर्वतमाला के दक्षिणी छोर पर स्थित केलवाड़ा व उत्तरी छोर पर स्थित नाडोल, दोनों पर भारी संख्या में फ़ौजें तैनात कर रखी थी।
केलवाड़ा से कुछ आगे बढ़ने पर वह एक प्रकार से कुम्भलगढ़ की प्राचीर के भीतर पहुंच चुका था, जैसे जैसे वह आगे बढ़ता जाता, प्राचीर ऊंची होती जाती। एक विशाल फ़ौज और अनुभव के सिवाय कुछ भी शाहबाज़ खां के अनुकूल नहीं था।
मुगल फ़ौज द्वारा कुम्भलगढ़ दुर्ग पर पहला आक्रमण :- केलवाड़ा में महाराणा प्रताप के सफल आक्रमण से मुगल फ़ौज पहले ही जली-भुनी हुई थी।
शाहबाज़ खां ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर हमला बोला, तो महाराणा प्रताप के नेतृत्व में राजपूतों ने तीरों से अनेक मुगलों के सीने भेद दिए।
मुगल फ़ौज परास्त हुई और कुम्भलगढ़ में हर-हर महादेव के नारे गुंजायमान होने लगे। मुगल फ़ौज पुनः केलवाड़ा स्थित अपने शिविर में लौट गई।
शाहबाज़ खां द्वारा दूसरी बार कुम्भलगढ़ पर आक्रमण :- पहली पराजय के बाद शाहबाज़ खां ने पुनः अपनी फ़ौज को सुदृढ़ किया और दुगुने जोश के साथ कुम्भलगढ़ पर हमला बोला,
लेकिन एक बार फिर कुम्भलगढ़ दुर्ग की अभेद्यता और राजपूतों वीरों की वीरता के आगे मुगल फ़ौज परास्त हुई। मुगल फ़ौज पुनः केलवाड़ा स्थित खेमे की तरफ़ लौट गई।
जब दूसरी बार भी शाहबाज़ खां को पराजय का सामना करना पड़ा, तो उसे अपने साथ वाले राजपूतों पर संदेह हुआ।
उसे लगा कि राजा मानसिंह कछवाहा और राजा भगवानदास कछवाहा सहित अन्य राजपूत मन से ये लड़ाई नहीं लड़ रहे। शाहबाज़ खां ने इन लोगों को रास्ते से हटाने की युक्ति सोचना शुरू किया।
* अगले भाग में राजा मानसिंह व राजा भगवानदास द्वारा कुम्भलगढ़ अभियान छोड़ने के बारे में लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)