अकबर मेवाड़ में साढ़े सात महीने गुजारकर फतहपुर सीकरी गया, जहां पुनः उसे महाराणा प्रताप की उदयपुर, गोगुन्दा व मोही विजय की सूचना मिली। इन घटनाओं ने अकबर को राजधानी में भी चैन से नहीं बैठने दिया।
अकबर ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध पुनः नए सिरे से कार्रवाई प्रारंभ करना तय किया। अकबर ने शाही सूबे अजमेर में दस्तम खां और गुजरात में शहाबुद्दीन अहमद खां को फ़ौज समेत तैनात किया।
मालवा में शाही सूबेदारों को सचेत कर दिया गया कि महाराणा प्रताप मालवा न आने पाए। बाद में अकबर ने मालवा में भी नए सूबेदार शुजाअत खां को भेज दिया।
गुजरात के सेवानिवृत्त सूबेदार को ईडर की सीमा पर तैनात कर दिया गया, ताकि महाराणा प्रताप गुजरात न जा सके।
सितंबर, 1577 ई. में अकबर अजमेर के लिए रवाना हुआ। यह अकबर की वार्षिक यात्रा का समय था। वह ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में जाना जाता था, परन्तु यही एकमात्र उद्देश्य नहीं था।
अकबर के दरबारी लेखकों ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि राजपूताने की मेवाड़ रियासत व उसके इर्दगिर्द उठ रही बगावतों का दमन करना भी बादशाह का मकसद था।
18 सितंबर, 1577 ई. को अकबर अजमेर पहुंचा। अकबर ने दरगाह जाकर सोने और मूल्यवान वस्तुओं का दान किया। अकबर ने यहां मेवाड़ विजय की मन्नत भी मांगी।
फिर वह अजमेर के तारागढ़ दुर्ग में गया, जहां सैयद हुसैन खांगसवार की मजार है। 5 अक्टूबर, 1577 ई. को अकबर मेवाड़ की तरफ न जाकर मारवाड़ की तरफ रवाना हुआ और मेड़ता में जाकर ठहरा।
अकबर अक्सर ऐसे नाटक किया करता था। अकबर ने पिछली बार भी साढ़े सात माह तक लगातार मेवाड़ के विरुद्ध सेनाएं भेजी थीं, परन्तु वह मेवाड़ में सिर्फ डेढ़ माह रहा।
इस बार भी अकबर मेड़ता चला गया, लेकिन उसका उद्देश्य मेवाड़ विजय ही था। अकबर द्वारा ऐसा करने के पीछे का कारण ये है कि वह नहीं चाहता था कि
लंबे समय तक उसका किसी एक रियासत को पाने की तरफ किए गए प्रयासों का पता सम्पूर्ण हिंदुस्तान को लगे, अन्यथा लोग अकबर की मेवाड़ जीतने की असफ़लताओं के चर्चे सुनते।
कुम्भलगढ़ का युद्ध :- 15 अक्टूबर, 1577 ई. को अकबर ने शाहबाज़ खां के नेतृत्व में एक विशाल सेना मेवाड़ की ओर रवाना की।
इस बार अकबर का लक्ष्य मेवाड़ के उस दुर्ग को जीतना था, जिसने अपनी मज़बूती और अभेद्यता के नज़रिए से चित्तौड़गढ़ दुर्ग को भी पछाड़ रखा था।
यह दुर्ग था महाराणा कुम्भा द्वारा मौर्यकालीन दुर्ग के अवशेषों पर बनवाया गया प्रसिद्ध कुम्भलगढ़। कुम्भलगढ़ दुर्ग चित्तौड़ छूटने के बाद एक तरह से मेवाड़ की मुख्य राजधानी हो गया था।
शाहबाज़ खां का परिचय :- शाहबाज़ खां का जन्म 1529 ई. में हुआ था। अकबर उसे अक्सर मुश्किल अभियानों का ही नेतृत्व देता था। वह धर्म के प्रति अत्यधिक कट्टर व सुन्नी मुस्लिम था।
उन दिनों लाहौर में एक कहावत चल पड़ी थी कि “अगर कोई काम न हो रहा हो तो शाहबाज़ खां से कहो, काम हो जाएगा।” शाहबाज़ खां को शुरुआत में 100 का मनसब मिला था, जिसे बाद में बढ़ाकर 5000 कर दिया गया।
ब्रम्हपुत्र अभियान में उसने 9000 की शाही फ़ौज का नेतृत्व किया था। शाहबाज़ खां को पहाड़ी किले जीतने का अनुभव था, साथ ही साथ उसे एक सेनापति और एक बख्शी के रूप में भी अनुभव प्राप्त था।
शाहबाज़ खां के नेतृत्व में मेवाड़ जाने वाले प्रमुख सिपहसालार :- आमेर के कुंवर मानसिंह कछवाहा, आमेर के राजा भगवानदास कछवाहा, गजरा चौहान, बीकानेर के राजा रायसिंह राठौड़ के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर दलपत सिंह,
अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना, सैयद हाशिम बारहा, उलग असद तुर्कमान, पायिन्दा खां मुगल, सैयद राजू, शरीफ खां, गाजी खां बदख्शी आदि। अकबर द्वारा भेजे गए अधिकतर सिपहसालार वे ही थे, जिनको पहले से मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों का अनुभव प्राप्त था।
महाराणा प्रताप के लिए अबुल फजल लिखता है कि “कुछ बागी लोगों पर फतह पाने के इरादे से शहंशाह ने अजमेर पहुंचकर ख्वाजा की इबादत की। शहंशाह ने गर्दीले और हेकड़ी में गर्दन कड़ी करने वाले शैतानी
खयालों से सराबोर राणा को रास्ते पर लाने की कोशिशें की। अगर इसमें कामयाबी ना मिले, तो ऐसे लोगों को पूरी तरह जड़ समेत उखाड़ देना चाहिए। ताकि इस खुशहाल दुनिया से वह बगावत का कलंक दूर हो सके। इस इरादे से
शहंशाह ने इस अज़ीम (महान) काम को पूरा करने की खातिर बिहार और सिरोही जीतने वाले नामी और बहादुर जंगज़ू मीर बख्शी शाहबाज़ खां को राणा के खिलाफ भेजने का फैसला किया।”
शाहबाज़ खां के नेतृत्व में मुगल फ़ौज के मेवाड़ की तरफ आने की सूचना महाराणा प्रताप को मिली। महाराणा प्रताप इस समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में थे और उन्हें ये समझते हुए देर नहीं लगी कि इस बार मुगलों का लक्ष्य कुम्भलगढ़ है।
महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ दुर्ग को और अधिक मज़बूती प्रदान की, जगह-जगह तैनात किए गए सैनिकों को सचेत कर दिया गया, दुर्ग की मोर्चाबंदी कर दी गई।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Good historical fact if few treacherous Rajputs didn’t join the expedition against the great freedom fighter Hon’ble Rana Pratap,then it was not become possible to Akbar to fight against Hon’ble Rana pratap ji.
Shame shame to gaddar Rajput
My salute to The great personality
Rana pratap ji.