12 मई, 1577 ई. को अकबर का राजधानी की तरफ प्रस्थान :- अकबर देपालपुर से रणथंभौर गया और रणथंभौर से फतहपुर सीकरी की तरफ निकल गया।
हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से के बादशाह अकबर ने अपना अमूल्य समय मेवाड़ जीतने की निरर्थक कोशिश में लगा दिया।
अकबर सितंबर, 1576 ई. में फतहपुर सीकरी से मेवाड़ के लिए रवाना हुआ था और मई, 1577 ई. तक मेवाड़ के आसपास घूम-फिरकर मेवाड़ पर फ़ौजें भेजता रहा, परन्तु हर बार असफलता ने उसके क़दम चूमे।
साढ़े सात महीनों के समय व अपार धन संपदा खर्च करने के बावजूद वह महाराणा प्रताप से अधीनता स्वीकार नहीं करवा सका।
महाराणा प्रताप पहले की तरह ही स्वतंत्रता से अरावली पर्वतमाला में विचरण कर रहे थे, अनेक आक्रमण सहने के बाद भी उनका आत्मविश्वास नहीं डिगा। परन्तु महाराणा प्रताप के सामने समस्याएं और बढ़ गई थीं।
अकबर अवश्य चला गया, परन्तु मुगल सेना ने मेवाड़ को चारों ओर से घेर रखा था। अकबर की सिरोही विजय के बाद मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम में अजमेर से सिरोही तक के विस्तृत भूभाग पर मुगल आधिपत्य स्थापित हो गया।
उसके नीचे ईडर, आबू, डूंगरपुर, बांसवाड़ा भी मुगल अधीन क्षेत्र में आ गए। दक्षिण-पूर्व में मालवा और उसके ऊपर कोटा-बून्दी पर भी मुगल आधिपत्य था।
मेवाड़ का एक बड़ा भाग अब भी शाही फ़ौज के कब्ज़े में था। महाराणा प्रताप इस समय मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेश में थे, पर वहां भी आए दिन मुगल फ़ौज के हमले होते थे।
महाराणा प्रताप की मित्र रियासतों पर मुगल अधीनता स्थापित होने के कारण अब वहां से भी सहायता की कोई गुंजाइश नहीं थी। महाराणा प्रताप ने भील आदिवासियों व सामन्तों के साथ मिलकर मुगल थानों पर आक्रमण करने की एक सुनिश्चित योजना बनाई।
महाराणा प्रताप की उदयपुर विजय :- महाराणा प्रताप व मेवाड़ वालों ने उदयपुर का नाम मुहम्मदाबाद स्वीकार नहीं किया। महाराणा प्रताप ने उदयपुर मुगल थाने पर आक्रमण किया व मुगलों को मार-भगाकर अधिकार किया।
महाराणा प्रताप ने अकबर द्वारा रखे गए नाम ‘मुहम्मदाबाद’ को बदलकर फिर से ‘उदयपुर’ रखा व उदयपुर में अकबर द्वारा ढाले गए सिक्के बन्द करवा दिए।
उदयपुर पर विजय प्राप्त करने के बाद महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा पर चढ़ाई की। गोगुन्दा में मुगल सेना परास्त हुई और महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा पर पुनः अधिकार किया। ये महाराणा प्रताप की गोगुन्दा पर पांचवी विजय थी।
अर्थात अब तक पांच बार मुगल सेना ने गोगुन्दा जीता और पांचों ही बार पुनः महाराणा प्रताप ने मुगलों को खदेड़कर गोगुन्दा जीता। इस प्रकार पिछले एक वर्ष में अकेले गोगुन्दा में ही 10 लड़ाइयां हो चुकी थीं।
सितंबर, 1577 ई. – मोही का युद्ध :- मोही वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित भाटी राजपूतों का ठिकाना है। मोही मेवाड़ के सबसे बड़े मुगल थानों में से एक था।
अकबर स्वयं पहले मोही में ठहरा था और जाते वक़्त मुजाहिद बेग को 3000 मुगल घुड़सवारों समेत वहां तैनात किया था। पैदल फ़ौज इस संख्या से अलग थी। मुजाहिद बेग ने हल्दीघाटी युद्ध में भी भाग लिया था।
उदयपुर व गोगुन्दा विजय के पश्चात मेवाड़ी सेना का उत्साह चरम पर था। महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा में ठहरकर ही मोही के राजपूतों तक संदेश भिजवाया और
उनसे कहा कि जल्द से जल्द मोही का मुगल थाना हटाओ। मोही व वहां के आसपास के राजपूतों ने महाराणा का संदेश पाकर मुगल थाने को हटाने के लिए कमर कस ली।
मोही के थानेदार मुजाहिद बेग ने मेवाड़ के कुछ स्थानीय निवासियों को धन देकर फसल उगवाई थी। मुगल फ़ौज के मेवाड़ में पांव जमाने का यही सबसे बड़ा कारण था।
कुछ गद्दारों का फ़ायदा उठाकर मुगल सेना महीनों तक रसद खाकर मेवाड़ में ही पड़ी रहती। यह ख़बर महाराणा प्रताप के पास पहुंची, तो उन्होंने मोही का मुगल थाना हटाने के प्रयास किए।
मोही पर मेवाड़ के राजपूतों ने भीषण आक्रमण किया। इस समय आमेर के राजा मानसिंह कछवाहा मोही के निकट पहाड़ी प्रदेश में ही थे, पर उन्हें मोही पर इस आक्रमण की सूचना नहीं मिली।
राजपूतों ने मोही में उग रही फसलें बर्बाद कर दी। मुजाहिद बेग को इसकी सूचना मिली, तो वह फ़ौरन फ़ौज समेत खेतों की तरफ निकला।
भीषण लड़ाई हुई, जिसमें कई मुगल सैनिक मारे गए। खेतों में लहू की धाराएं बहने लगीं। मोही का मुगल थानेदार मुजाहिद बेग सैंकड़ों सैनिकों सहित मारा गया और उसके प्रमुख साथी गाज़ी खां बदख्शी,
सुभान कुली तुर्क, शरीफ खां अतका आदि भाग निकले। इस प्रकार मोही का मुगल थाना हटा दिया गया और वहां पर महाराणा प्रताप का अधिकार स्थापित हो गया।
अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है “राणा के आदमियों ने मोही पर हमला कर फसलें वगैरह बर्बाद करना शुरु कर दिया। इस वक्त कुंवर मानसिंह कछवाहा मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों में चला गया। मोही के थानेदार
मुजाहिद बेग को खबर मिली, तो वह फौरन बिना जरुरी हथियार लिए ही फौजी आदमियों समेत खेतों की तरफ दौड़ा। मुजाहिद बेग ने रुस्तम जैसी बहादुरी दिखाई और शहीद हुआ”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)