महाराणा प्रताप द्वारा 23 मार्च, 1577 ई. को जारी एक ताम्रपत्र में लिखित जानकारी :- “महाराजाधिराज महाराणा प्रताप ने ओडा गांव पुरोहित काशी को दान दिया।
यह गांव पहले महाराणा उदयसिंह ने दान किया था, परन्तु गोगुन्दा की लड़ाई में उसका ताम्रपत्र खो गया, जिससे यह नया कर दिया गया।” पंचोली जेता ने इसे लिखा। पुरोहित काशी के पूर्वज सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पुरोहित थे।
अकबर देपालपुर में ठहरकर महाराणा प्रताप पर फौजें भेजता रहा। अबुल फजल लिखता है कि “शहंशाह देपालपुर में कुछ और वक्त रुकना चाहते थे, ताकि वे उस बागी राणा के बादशाही मातहती कुबूल करने की खुशखबरी सुन सके।”
महाराणा प्रताप द्वारा चोरों का दमन :- हल्दीघाटी युद्ध के बाद से ही महाराणा की शक्ति को कमजोर समझकर मेवाड़ में कुछ लोगों ने चोरियां करनी शुरु कर दीं। महाराणा प्रताप ने चोरों का दमन कर मेवाड़ को इनसे निजात दिलाई।
ठाकुर गोपालदास राठौड़ द्वारा गोडवाड़ की मुगल छावनी पर आक्रमण :- महाराणा प्रताप ने घाणेराव के ठाकुर गोपालदास राठौड़ को देसूरी की नाल,
कुम्भलगढ़ के निकट पर्वतीय भाग व गोडवाड़ के इलाके की निगरानी में तैनात किया। गोडवाड़ में ठाकुर गोपालदास राठौड़ ने मुगलों की सैनिक छावनी पर हमला कर छावनी लूट ली।
महाराणा प्रताप और उनके सहयोगियों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा का निश्चय तो कर लिया, परन्तु दुर्गम और विकट पर्वतीय प्रदेश में दीर्घकालीन युद्ध के लिए
समुचित प्रशासनिक, सामरिक व आर्थिक व्यवस्था करना आसान कार्य नहीं था। प्रशासनिक व्यवस्था की दृष्टि से महाराणा प्रताप के सामने निम्न समस्याएं थीं :-
मुगल सेना से रक्षा के लिए स्वयं के परिजनों, स्त्री-बच्चों, सामन्तों के परिजनों व स्त्री-बच्चों को ऐसे सुरक्षित स्थलों पर रखना, जहां उनकी रक्षा हो सके, उनका भरण-पोषण हो सके और संकट के समय उनको तत्काल स्थानांतरित किया जा सके।
राज्य की अर्थव्यवस्था, पैदावार, उद्योग-धंधे, व्यापार आदि की पर्वतीय भाग में इस तरह व्यवस्था करना, जिससे मेवाड़ का समस्त सैन्य संगठन सुचारू रूप से संचालित किया जा सके,
जन जीवन की सामान्य आवश्यकताएं पूरी की जा सके और साथ ही साथ शत्रु को उनका लाभ न मिल सके।महाराणा प्रताप ने पहाड़ी खेती पर अधिक जोर दिया,
इसी कारण से मुगल आक्रमण के समय समतल स्थानों पर रहने वाली प्रजा को पहाड़ों में बसाने के बावजूद भी उनका जीवनयापन होता रहा।
प्रशासनिक व सैन्य व्यवस्था का इस भांति विकेंद्रीकरण करना कि शत्रु के आक्रमण उसको एक साथ छिन्न-भिन्न न कर सके।
सैन्य व्यवस्था को इस भांति संगठित व संचालित करना, जिससे कि अल्प संख्या में होते हुए भी पर्वतीय भाग में बहुसंख्यक मुगल सेना की कार्रवाइयों को बेकार कर सके और उसका अधिकाधिक विनाश कर सके।
पर्वतीय भाग में रहने वाले सम्पूर्ण जन समुदाय के दैनिक जीवन व कार्यकलाप को इस भांति संचालित करना कि वे अपना व्यवसाय कर सके, स्वयं की सुरक्षा कर सके व शत्रु को हानि पहुंचा सके।
राज्य के कोष, शस्त्रागार, अन्न भंडार आदि के लिए सुरक्षित स्थलों की व्यवस्था करना। एक ऐसी तीव्रगामी संदेशवाहक व्यवस्था तथा गुप्तचर व्यवस्था का गठन करना,
जो शत्रु की गतिविधियों के बारे में अटूट रूप से सूचना दे सके। पर्वतीय भागों में सैनिक आवश्यकताओं की दृष्टि से हथियार, माल आदि ढोने की समुचित व्यवस्था करना।
महाराणा प्रताप ने इन सभी समस्याओं को कुशल तरीके से सुलझाया। महाराणा प्रताप ने संदेशवाहकों के रूप में कुछ भीलों का चयन किया। भील मीलों की दूरी मिनटों में तय कर लेते थे और पहाड़ों पर द्रुत गति से चढ़ते थे।
सभी पहाड़ी रास्तों को इनसे बेहतर कोई नहीं जानता था।मुगल सेना के आक्रमण की सूचना महाराणा तक पहुंचाने के लिए भीलों ने एक आवाज़ तय कर रखी थी।
वे जोर-जोर से ‘फाइरे-फाइरे’ बोलते थे, इसके अतिरिक्त इन लोगों ने ढोल की अलग-अलग थाप को अलग-अलग संदेश के रूप में तय कर रखा था, जिससे सूचना द्रुत गति से फैल जाती थी।
भीलों का एक और महत्वपूर्ण गुण था वफादारी। इतिहास में ऐसा कोई वृतांत नहीं मिलता कि मुगलों ने किसी भील को धन का लालच देकर महाराणा प्रताप के ठिकानों की ख़बर हथियाई हो।
महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा में स्थित मायरा की गुफा में शस्त्रागार बना रखा था। मुगलों ने गोगुन्दा पर कई बार हमला किया, पर मायरा की गुफा तक नहीं पहुंच पाए।
जावरमाला की गुफा का उपयोग भी कोष व हथियार रखने के लिए किया गया। महाराणा प्रताप के हथियार और कोष कभी शत्रु के हाथ लगा हो, ऐसा उदाहरण नहीं मिलता।
ये महाराणा प्रताप की प्रशासनिक कुशलता का ही परिणाम था कि 25 वर्षों तक 300 मील के छोटे पर्वतीय घेरे में मुगल सेनाओं के अनवरत आक्रमणों के बावजूद महाराणा का शासन जीवित रहा।
महाराणा की इसी कुशलता के कारण उनके सहयोगियों व प्रजा का मनोबल भी दृढ़ रहा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)