ईडर के पहले युद्ध में अकबर ने एक फ़ौज ईडर के राय नारायणदास राठौड़ के विरुद्ध भेजी, जिसमें मुगल विजयी रहे और उन्होंने ईडर पर कब्ज़ा कर लिया। राय नारायणदास राठौड़ अपनी फौज लेकर अपने दामाद महाराणा प्रताप के पास आ गए।
22 फरवरी, 1577 ई. को हुए ईडर के दूसरे घमासान युद्ध का वर्णन :- अकबर इस समय देपालपुर में था और वह महाराणा प्रताप के विरुद्ध लगातार फ़ौजें भेजता जा रहा था।
महाराणा प्रताप स्वयं मेवाड़ में मुगलों से उलझे हुए थे। जब भी महाराणा प्रताप को सहायता की दरकार रही, ईडर के राय नारायणदास सदैव आगे आए।
अब जब ईडर के राय ने महाराणा से सहायता मांगी, तो महाराणा प्रताप ने मेवाड़ में सुरक्षा व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करके शेष फ़ौज समेत ईडर की तरफ कूच किया।
ईडर के युद्ध में भाग लेने वाले प्रमुख मुगल सिपहसलार :- आसफ खां, हीरा भान, धीर परवन, कुतुब खान, मिर्जा मुहम्मद मुफीम, मुहम्मद मुकीम, कुलीज खान, तैमूर बदख्शी, ख्वाजा गयासुद्दीन, मीर अबुलगौस,
मुजफ्फर, नूर किलीज, नकीब खां। इस लड़ाई का नेतृत्व आसफ़ खां ने किया। ये वही आसफ़ खां है, जो हल्दीघाटी युद्ध में बख्शी के पद पर था।
ईडर की इस लड़ाई में मुगल फ़ौज की हरावल का नेतृत्व मिर्जा मुहम्मद मुफीम ने किया। अन्य सिपहसलारों में शामिल नकीब खां वही है,
जिसने हल्दीघाटी युद्ध में भाग नहीं लिया था क्योंकि उस युद्ध की कमान एक हिन्दू के हाथ में थी। ईडर की लड़ाई में कमान आसफ़ खां के हाथ में थी, इसलिए नकीब खां भी लड़ाई में शामिल हो गया।
महाराणा प्रताप व राय नारायणदास ने रात के वक़्त मुगल फ़ौज पर छापामार आक्रमण करने की योजना बनाई, लेकिन इसकी भनक मुगलों को लग गई।
मुगलों ने 500 घुड़सवारों को ईडर में तैनात किया और बाकी को राय नारायणदास और महाराणा प्रताप से लड़ने भेजा। मुगल फौज ईडर से 7 कोस तक गई और वहां उन्हें राजपूतों की फौज नज़र आई।
इस लड़ाई का हाल सिर्फ फारसी तवारिखों में ही मिलता है, इसलिए यहां अकबरनामा व मुन्तखब-उत-तवारीख से इस युद्ध का वर्णन किया गया है।
अकबरनामा में अबुल फजल लिखता है कि “राय नारायणदास ने राणा कीका और दूसरे ज़मीदारों के साथ मिलकर नई फौज बनाई और ईडर से कोई 10 कोस तक चढ़ आया। राजपूतों का इरादा रात में अचानक हमला करने का था। ये बात आसफ खां को पता चली,
तो उसने भी मुगल सिपहसलारों से सलाह ली और दिन निकलते ही हमला करने का फैसला किया। नगाड़े गरजने लगे और जल्द ही लड़ाई शुरु हुई। तीर, तलवार और भाले हवा में उड़ने लगे।”
अबुल फ़ज़ल आगे लिखता है कि “शाही फौज की हरावल पर राजपूतों ने करारी चोट की, जिससे हरावल की कमान सम्भालने वाला मिर्जा मुहम्मद मुफीम बड़ी बहादुरी से लड़कर शहीद हुआ। शाही फौज ने अपने घोड़ों की रास
ढीली कर दी और लड़ने के लिए टूट पड़े। बेहद बहादुर राजपूतों ने भी अपने भाले ताने और उनसे भिड़ गए। अचम्भे में डाल देने वाली हाथों-हाथ लड़ाई हुई। बहादुरी के हीरे के इम्तहान का वक़्त आ गया और
वह भी ज्यादा चमचमाने लगा। बहादुरों का शोरोगुल उस वक़्त का मौसिक़ी हो गया। खून शराब की तरह बहने लगा, बरछों की मूठें प्याले और तीर आखिरी स्वाद था।”
अबुल फ़ज़ल आगे लिखता है कि “हाथ-पैर जख्मी होने के बावजूद भी नूर किलीज लड़ता रहा। राजपूतों ने जोर पकड़ा, तो मुजफ्फर घोड़े से गिर गया, पर बहादुरों ने उसे फिर घोड़े पर बिठा दिया। धीर परवन ने भी
बड़ी बहादुरी दिखाई। मुहम्मद मुकीम ने मौत का शानदार शर्बत पिया। कुतुब खां ने भी अपनी जिन्दगी का सिक्का दांव पर लगा दिया। जब पीछे वाली शाही फौज आगे बढ़ी, तो राजपूतों से जो बन पड़ा वो किया,
पर आखिरकार उन्हें भागना पड़ा। बादशाही फौज ने फतह हासिल की और जीत की खबर शहंशाह के पास पहुंची, तो उन्होंने भी खुदा का शुक्रिया अदा किया। शहंशाह ने आसफ खां के पास तारीफों से भरा एक फरमान भेजा।”
अब्दुल कादिर बदायूनी लिखता है “ईडर का राय हमसे एक कदम आगे रहता था। इस जंग में शाही फौज ने फतह पाई, पर राणा कीका और राय नारायणदास लोमड़ियों की तरह चालाक थे। उन्होंने हमारी फौज को काफी नुकसान पहुंचाया।”
अकबर का ईडर पर अधिकार बना रहा और राजपूतों की पराजय हुई। अबुल फजल के लिखे वर्णन से साफ जाहिर होता है कि पूरे युद्ध में राजपूतों का पलड़ा भारी रहा, परन्तु उसने ये भी लिखा है कि
पीछे खड़ी शाही फौज भी लड़ने को आगे आई। हल्दीघाटी युद्ध में भी मुगलों ने यही रणनीति अपनाई थी। ईडर की इस लड़ाई में भी पीछे सुरक्षित खड़ी फौज को अन्तिम क्षणों में आगे लाकर युद्ध के नतीजे बदल दिए गए।
ईडर की यह लड़ाई दोपहर तक ख़त्म हो गई। इस लड़ाई में मुगलों की तरफ से मिर्ज़ा मुहम्मद मुफ़ीम, मुहम्मद मुकीम, कुतुब खां वग़ैरह नामी सिपहसलार मारे गए।
महाराणा प्रताप व राय नारायणदास राठौड़ ने जितना संभव था, मुगलों को उतना नुकसान पहुंचाया। तत्पश्चात महाराणा प्रताप पुनः मेवाड़ लौट आए और मेवाड़ में मुगल विरोधी गतिविधियों में जुट गए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)