फरवरी-मार्च, 1577 ई. में महाराणा प्रताप द्वारा आवरगढ़ को अस्थायी राजधानी बनाना :- महाराणा प्रताप ने झाड़ौल के कमलनाथ पर स्थित आवरगढ़ में अस्थायी राजधानी बनाई।
मान्यता है कि इसी कमलनाथ पर्वत पर लंकापति रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अपना सिर काटा था। कमलनाथ आवरगढ़ उदयपुर से 43 मील पश्चिम में अरावली के सघन पहाड़ों में उच्च शिखर पर स्थित है।
यहां से गोगुन्दा उत्तर की ओर 30-40 मील, चावंड दक्षिण-पूर्व में 42-43 मील व गुजरात की सीमा 15-20 मील पश्चिम में है। कमलनाथ की तलहटी में देभाणा गांव है।
पहाड़ पर चढ़ने के लिए वहां से देवटा का घाटा पार करना पड़ता है। लगभग आधा मील चढ़ने के बाद कुम्भजर नामक पौराणिक स्थान आता है। यहीं आवरगढ़ का प्रथम दरवाजा था।
यहां से आगे बढ़ने पर रावण टुक व वानर टुक नामक दो पहाड़ियां एक-दूसरे की तरफ झुकी हुई हैं, इसी स्थान पर आवरगढ़ का दूसरा दरवाजा था। यहां से आधा मील और चढ़ाई चढ़ने के बाद कमलनाथ महादेव का मुख्य मंदिर, सराय व वर्ष भर बहने वाला झरना दिखाई देता है।
यहां से मुख्य आवरगढ़ की प्रथम चढ़ाई आरंभ होती है, जो लगभग एक मील है। चढ़ाई समाप्त होते ही खंडहर आते हैं। इन खंडहरों में 4-5 कमरे और बाहर बड़ी चौपाल है।
ये खंडहर ही महाराणा प्रताप के महलों के अवशेष हैं। पास ही पानी का बड़ा तालाब है। इस तरह के यहां कुल 12 तालाब हैं। प्रथम तालाब से कुछ आगे बढ़ने के बाद मुख्य आवरगढ़ की दूसरी चढ़ाई आरंभ होती है।
इस चढ़ाई में स्थान-स्थान पर अनेक खंडहर हैं। ये खंडहर पहले महाराणा प्रताप के सैनिकों के रहने के लिए बने हुए कमरे थे। कुछ और ऊपर चढ़ने के बाद एक ऊंचे स्थान पर बड़ा गोल चबूतरा बना हुआ है। यह चबूतरा महाराणा प्रताप का सभास्थल था।
इस चबूतरे से पूरा आवरगढ़, उसका परकोटा, नीचे के सारे खंडहर, तालाब और चारों तरफ 20 मील तक का नज़ारा दिखाई देता है।
दिन के समय में शत्रु सेना यहां दूर से ही दिखाई दे सकती थी, इसलिए आवरगढ़ निसंदेह मेवाड़ का सबसे सुरक्षित स्थान था। इस गोल चबूतरे के निकट और भी खंडहर हैं, जो घोड़ों व हाथियों को बांधने का स्थान था।
यहीं एक बुर्जनुमा खंडहर है, जिसे होली बुर्ज़ कहते हैं। होली बुर्ज पर महाराणा प्रताप ने 28 फरवरी, 1577 ई. को अपना 5वां राज्यारोहण दिवस मनाया था।
महाराणा प्रताप ने यहां होली भी जलाई, तब से आज तक कमलनाथ मंदिर के पुजारी द्वारा होली यहीं जलाई जाती है। यहां होली जलने के बाद ही आसपास के गांवों में होली जलाई जाती है।
आवरगढ़ 12 मील के घेरे में बसा हुआ है, जिसके चारों ओर परकोटा है। अधिकांश स्थानों पर परकोटा अब गिर चुका है। आवरगढ़ कभी अच्छी बस्ती रही होगी।
यह स्थान अरावली के सर्वाधिक सुरक्षित स्थानों में से एक है। यहां शत्रु का पहुंचना दुर्लभ था। पहाड़ियां इस तरह की हैं कि शत्रु उन्हीं में चक्कर काटता रहता, परन्तु दुर्ग में प्रवेश नहीं कर पाता।
जिन घायल सैनिकों को लम्बे समय तक उपचार की आवश्यकता होती व वीरगति को प्राप्त हो चुके वीरों के परिवार की महिलाओं को यहीं रखा जाता था।
महाराणा प्रताप ने आवरगढ़ का जितना बेहतर तरीके से उपयोग हो सकता था, उतना उन्होंने किया। आवरगढ़ से दक्षिण में 3 मील की दूरी पर कोल्यारी गांव है, जहां महाराणा प्रताप ने उपचार केंद्र विकसित कर रखा था।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद घायल सैनिकों का उपचार भी यहीं कराया गया था। इसके अतिरिक्त छापामार लड़ाइयों में जो सैनिक घायल होते थे, उनका उपचार भी यहीं कराया जाता था।
एक रात आवरगढ़ में महाराणा प्रताप विश्राम कर रहे थे, कि तभी उन्हें समाचार मिला कि कुछ मुगल सैनिक आवरगढ़ की पहाड़ियों में पहुंच चुके हैं पर किले का रास्ता नहीं मिलने से पहाड़ियों में भटक रहे हैं।
महाराणा प्रताप रात में ही कुछ विश्वस्त सैनिकों को साथ लेकर मुगलों की फौजी टुकड़ी की खोज में निकल पड़े। मार्ग में उनको एक भील-भीलनी मिले।
उन्होंने महाराणा प्रताप को उस दिशा में जाने से रोका, परन्तु महाराणा नहीं माने। कुछ दूर जाने पर महाराणा के साथ वाले सिपाहियों ने कहा कि अब सम्भवतः मुगल सैनिक टुकड़ी दिखाई न दे, इसलिए आप पुनः गढ़ में प्रस्थान करें और विश्राम करें।
महाराणा प्रताप के लौटने के पश्चात कुछ ही देर में महाराणा के सैनिकों व मुगल सैनिकों में मुठभेड़ शुरू हुई। महाराणा के सैनिक मुगलों की सैनिक टुकड़ी पर टूट पड़े और मुगल सैनिक टुकड़ी धराशायी हुई।
महाराणा के सैनिक भी सख़्त घायल होकर वहीं गिर पड़े। जब सुबह हुई तो महाराणा ने अपने साथ गए सैनिकों के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि सैनिक वहां से नहीं लौटे।
महाराणा प्रताप ने एक सैनिक टुकड़ी भेजी, तो मालूम हुआ कि वहां महाराणा के सैनिक घायल पड़े हैं। उन सैनिकों को पुनः गढ़ में लाकर उपचार करवाया गया।
महाराणा ने अपने सैनिकों की वीरता की प्रशंसा की और कहा कि तुमने मुगलों को परास्त कर वीरता का कार्य किया है। महाराणा प्रताप ने अपने हितैषी उन भील-भीलनी की तलाश करवाई, लेकिन वे नहीं मिले।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)