दिसम्बर, 1576 ई. में अकबर बांसवाड़ा में था। महाराणा प्रताप पहाड़ों से निकले और उन्होंने समतल स्थानों पर तैनात मुगल छावनियों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।
इन दिनों ईडर के राय नारायणदास भी अपनी फौजी टुकड़ी सहित महाराणा प्रताप के साथ थे। महाराणा प्रताप का ये आक्रमण इतना पुरज़ोर था कि कुछ मुगल छावनियां तो बिना लड़े ही भाग निकली।
महाराणा प्रताप ने शाही लश्कर के आगरा जाने का मार्ग बंद कर दिया। तत्पश्चात महाराणा प्रताप ने अपनी सेना सुदृढ़ की और गोगुन्दा की तरफ़ कूच किया।
महाराणा प्रताप ने मुगल फ़ौज को मार-भगाकर चौथी बार गोगुन्दा पर अधिकार किया। महाराणा प्रताप के इस विजय अभियान की सूचना बांसवाड़ा में अकबर तक पहुँचने में देर नहीं लगी।
26 दिसम्बर, 1576 ई. के दिन अकबर को महाराणा प्रताप की जवाबी कार्रवाइयों की सूचना मिली। महाराणा प्रताप ने सिरोही के महाराव सुरताण देवड़ा से भी पुनः सम्पर्क स्थापित कर लिया।
महाराणा के कहे अनुसार महाराव सुरताण ने भी सिरोही में मुगल विरोधी गतिविधियां प्रारंभ कर दीं। अकबरनामा का लेखक अबुल फजल लिखता है कि
“बांसवाड़ा में शहंशाह के पास खबर आई कि राणा कीका ने फिर से पहाड़ियों और घाटियों के जरिए कोहराम मचाना शुरु कर दिया है और वह शैतानी खयालों से भरकर तबाही मचा रहा है। शहंशाह ने फ़ौरन एक फौज
गोगुन्दा भेजी। राणा का दिमाग शैतानी खयालों से भरा हुआ था। आमेर के राजा भगवानदास, कुंवर मानसिंह कछवाहा, बैरम खां के बेटे अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना,
कासिम खां मीरबहर वगैरह बहुत से नामी सिपहसालारों को इस इलाके में भेजा गया। शहंशाह के काफी ध्यान देने की वजह से इस इलाके में बगावत के काँटे साफ कर दिये गए।”
अकबर स्वयं फ़ौज समेत बांसवाड़ा से मालवा के लिए रवाना हो गया। उज्जैन से लगभग 27 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित देपालपुर नामक स्थान पर उसने अपना शिविर स्थापित किया।
अकबर ने देपालपुर में 3 महीने बिताए। देपालपुर में रहते हुए अकबर महाराणा प्रताप के विरुद्ध कार्रवाइयों को अंजाम देने लग गया।
इन दिनों मुगलों में महाराणा प्रताप की दहशत इस क़दर बढ़ चुकी थी कि प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बदायूनी लिखता है कि “मैं उस वक्त बीमारी के सबब से वतन में रह गया था और बांसवाड़ा के लश्कर में जाना चाहता था,
मगर हिंडोन में अब्दुल्ला खां ने वह रास्ता बन्द व ख़तरनाक बताकर मुझको लौटाया, तब मैं ग्वालियर सारंगपुर और उज्जैन के रास्ते से देपालपुर में जाकर बादशाह के सामने हाजिर हुआ।”
महाराणा प्रताप द्वारा जारी पत्र :- ये पत्र महाराणा प्रताप द्वारा आचार्य बलभद्र को जारी किया गया था, जिनके सम्बन्धी वेणीदास जी छापामार लड़ाईयों में मेवाड़ की तरफ से लड़ते हुए काम आए थे।
ये पत्र संवत् 1634 में पौष शुक्ल 10 अर्थात 9 जनवरी, 1577 ई. को भामाशाह जी कावडिया द्वारा लिखा गया व महाराणा प्रताप द्वारा जारी किया गया।
पत्र में सबसे ऊपर ‘श्री रामोजयती’, बायीं तरफ ‘श्री गुणेस प्रसादातु’ व दायीं तरफ ‘श्री एकलिंग प्रसादातु’ लिखा है। पत्र पर भाले का चिन्ह अंकित है। पत्र 7 पंक्तियों में लिखा गया है, जो कुछ इस तरह है :-
“स्वस्ति श्री कटक दल का डेरा सुयाने महाराजाधिराज महाराणा श्री प्रतावसींघ जी आदेसातु आचारज बाबा बलभद्र कस्य। अप्रचे. वेणीदास तो जगडा में काम आय्यो ने थे कइी चंता करो मती रुपनाथ री वान्नी रेवेगा।
एक दाण रुपनाथ ने पेतावा भेज जो थे पी जमा वान्नी रावजो। रुपनाथ रे बाप श्री हजुर हे थे कइी चंता करो मती। दुवे थी मुव साहा भामा संमत १६३४ को पोस सुद दस।”
अर्थात् वेणीदास तो यहाँ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ है, आप कोई चिन्ता मत करना। वेणीदास के पुत्र रुपनाथ की देखभाल रखी जाएगी, एक बार उसे महाराणा प्रताप के पास भेज दो। अब रुपनाथ के पिता श्री हजूर महाराणा प्रताप हैं।
पत्र की पंक्तियां भले ही कम हों, परन्तु इससे एक बड़ी बात पता चलती है और वो ये है कि महाराणा प्रताप की सेना में वीरगति को प्राप्त करने वाले एक सैनिक की अहमियत भी बहुत अधिक थी।
महाराणा प्रताप वीरगति को प्राप्त होने वाले सैनिकों के परिवार को पिता समान पालते थे। महाराणा प्रताप उस कथन को सही सिद्ध करते हैं कि प्रजा के लिए राजा एक पिता समान होता है।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले अपने मामा पाली के मानसिंह जी सोनगरा के पुत्र अमरसिंह जी सोनगरा को भीण्डर की जागीर प्रदान की।
साथ ही साथ महाराणा प्रताप ने बदनोर के ठाकुर रामदास राठौड़ के भाई श्यामदास राठौड़ को गोगावास व हरिदास राठौड़ को देलाणे की जागीर दी।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
VERY INTERESTING HISTORY OF MEVAD RATAN RANA PRATAP. WE ARE PROUD OF HIM.
Bhut hi shandar