हज यात्रियों को महाराणा प्रताप का ख़ौफ़ :- अक्टूबर, 1576 ई. में हज यात्रा का आरंभ हुआ। अकबर का बड़ा मन था हज यात्रा पर जाने का लेकिन उसके दरबारियों के निवेदन पर उसने यह यात्रा करने का विचार छोड़ दिया।
फिर भी हज यात्रा की शुरुआत बड़े जोर शोर से की गई और अकबर ने आदेश निकाला कि हज यात्रियों का खर्चा शाही ख़ज़ाने से दिया जाएगा।
अकबर इस समय मेवाड़ में था और हज का सीधा रास्ता भी मेवाड़ से ही होकर गुजरता था। अकबर ने अपने शिविर में दरबार लगाकर इस बात पर विचार विमर्श किया और यह निष्कर्ष निकाला कि हज जाने वाले यात्रियों को महाराणा प्रताप के सैनिक तंग करेंगे।
यही कारण था कि अकबर को हज यात्रा में जाने से मना किया गया। सुल्तान ख़्वाजा को मीर हाजी नियुक्त किया गया अर्थात यात्रियों का नेता बनाया गया।
उसे उस ज़माने के 6 लाख रुपए, 12000 खिलअत और बहुत सा सामान मक्का मदीना में बांटने के लिए दिया गया। ये आदेश भी दिए गए कि उस इलाके के गरीब लोगों की सूची बनाई जाए, ताकि हर वर्ष शाही ख़ज़ाने से मदद पहुंचती रहे।
इससे पहले कभी भारत से इतने हज यात्री नहीं गए थे। अकबर स्वयं नंगे सिर, नंगे पैर, सिर के बाल थोड़े उतरवाकर, हज यात्रियों की सादी पोशाक पहनकर इस यात्रा में शामिल हुआ और
इस दल के साथ थोड़ी दूर तक पैदल चला। उसे इस तरह देखकर लोग जोर जोर से नारे लगाने लग गए। यात्रियों को विदा करके अकबर पुनः अपने शिविर में आ गया।
हज जाने वाले यात्रियों के नाम कुछ इस तरह हैं :- अकबर के परिवार के सदस्यों में से मुगल बादशाह हुमायूं की बहन गुलबदन बेगम, जिसने हुमायूंनामा लिखा। गुलबदन बेगम के साथ बेगम सलीमा सुल्तान भी थी,
जो कि बैरम खां की पत्नी थी, जिससे बाद में अकबर ने निकाह किया और ये अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना की मां थी। गुलबदन बेगम का बेटा सआदत यार कोका भी इस यात्रा में शामिल था।
इस हज यात्रा में शामिल होने वाले काज़ी व अन्य लोगों में शाह ख्वाजा मलिक महमूद, काज़ी इमादुल्मुल्क, मौलाना अब्दुर्रहीम, मुल्ला अब्दुल्ला वफादार, ख्वाजा अशरफ, ख्वाजा हुसैन अली फर्खरी, मौलाना फजली नौशद, शाह मिर्जा, जमाल खां बिल्लोच आदि सम्मिलित थे।
अकबरनामा में अकबर का दरबारी लेखक अबुल फजल लिखता है कि “इसी दौरान हमारे पाक मजहब के हज का जूलुस शुरु हुआ। हज का सीधा रास्ता मेवाड़ होकर जाता था। ये खौफ था कि हज जाने वाले मुसाफिरों को
राणा के आदमी तंग करेंगे। इस वजह से शहंशाह ने राणा के खिलाफ गोगुन्दा पर और नारायणदास के खिलाफ ईडर पर भेजी गई दोनों फौजों को वहां से हटाकर हज मुसाफिरों के बचाव खातिर तैनात की। ये कारवां गोगुन्दा की ओर रवाना हुआ,
जहां से एक फौज अलग होकर फिर से राणा के पीछे लगा दी गई। दूसरी फौज इस कारवां के साथ ईडर तक गई और अहमदाबाद में इनकी हिफाजत के इन्तजाम करके फिर से नारायणदास के पीछे चली गई।
इकबालनामा में लिखा है “कारवां और उसके पीछे-पीछे चलने वाली शाही हरम की औरतों की हिफ़ाजत में आने वाली मुश्किलों को दूर करने की खातिर कुलीज खां को फौज समेत भेजा गया”
अबुल फजल लिखता है “इसी दौरान गुजरात से खबर आई कि बादशाही सिपहसलारों के इन्तजामों से शाही हरम की पाक साफ औरतें खतरे के समन्दर (मेवाड़) से
बाहर निकलकर गुजरात पहुंच चुकी हैं। शहंशाह ने खबर सुनी, तो बेहद खुश हुए और कारवां को फतेहपुर सीकरी लाने की जिम्मेदारी शिहाबुद्दीन अहमद खां को सौंपी”
गोगुन्दा पर फिर से मुगलों का कब्ज़ा :- जो दल इस कारवां के साथ भेजा गया था, उसमें से एक दल पानरवा तक पहुंचकर फिर से महाराणा प्रताप के पीछे लग गया।
मुगल फौज का यह दल गोगुन्दा की तरफ रवाना हुआ, लेकिन उन्हें फिर से निराशा ही हाथ लगी। महाराणा प्रताप गोगुन्दा छोड़कर चले गए और खाली पड़े राजमहलों पर मुगलों का कब्ज़ा हुआ।
इस संबंध में अबुल फ़ज़ल लिखता है कि “जब शाही फ़ौज गोगुन्दा पहुंची, तो राणा के सिपाही वहां नहीं थे, उस अभागे राणा ने फिर से ख़ुद को छिपा लिया।”
तीसरी बार गोगुन्दा पर महाराणा प्रताप का अधिकार :- महाराणा प्रताप की रणनीति के आगे मुगल सेना के प्रयास निरर्थक साबित होते जा रहे थे। महाराणा प्रताप ने सही समय पर मुगल फौज पर आक्रमण किया और गोगुन्दा पर विजय प्राप्त कर ली।
मुगल लेखकों द्वारा महाराणा प्रताप के लिए अभागे जैसे शब्दों का प्रयोग मात्र उनकी झुंझलाहट थी। उनका धैर्य महाराणा प्रताप की छापामार युद्ध प्रणाली की कुशलता के आगे घुटने टेकता दिखाई दे रहा था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Haj ke liye Jaisalmer ke pas se Rasta jata tha. Bhatiyo ne Akbar ki MA jo Haj karne ja rahithi use luta. 10000mohre luti thi