महाराणा प्रताप द्वारा छापामार युद्ध नीति अपनाना :-हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हो गया। युद्ध के परिणाम भले ही अनिर्णायक रहे हों, परन्तु महाराणा ने इस युद्ध से कई सबक सीखे।
मुगलों के ख़िलाफ़ अपने सैन्य संचालन के तरीकों को बदलना अब अनिवार्यता हो चुकी थी, ये बात महाराणा प्रताप भली भांति जान गए। युद्ध समाप्त हुआ था, संघर्ष नहीं।
यहां से महाराणा प्रताप के जीवन का वो संघर्ष प्रारंभ होता है, जिसके कारण आज उनकी ख्याति संसार भर में फैली हुई है।
यदि अकबर के अधीनस्थ शासकों की फौजी संख्या ना जोड़ी जाए, तब भी महाराणा प्रताप की कुल फौज अकबर की कुल फौज के दो फीसदी से अधिक नहीं थी।
इसके अतिरिक्त महाराणा प्रताप के पास हथियार और साधन वैसे नहीं थे, जैसे मुगलों के पास होते थे। इसलिए छापामार युद्ध नीति को अपनाना आवश्यक हो गया, जिसे गुरिल्ला युद्ध भी कहते हैं।
मेवाड़ का राजघराना हिन्दुस्तान के सबसे समृद्ध राजघरानों में से एक था, जिसकी अमीरी का बखान मुगल भी करते थे। राणा सांगा के समय 10 करोड़ सालाना आमदनी वाला मुल्क अब लगातार संघर्ष से जर्जर हो चुका था।
विश्व के सबसे प्राचीन राजघराने के स्वाभिमानी सूरज ने जंगलों की तरफ प्रस्थान किया और प्रतिज्ञा की कि “जब तक मेवाड़ को स्वाधीन नहीं करा देता, तब तक घास ही मेरा बिछौना, जंगल ही मेरे महल और पत्तल-दूने ही मेरे भोजन करने के पात्र होंगे”
हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने फिर से राजपूतों और भीलों को इकट्ठा करना शुरु किया। इस युद्ध के बाद महाराणा को अफगानों का साथ नहीं मिला।
ये महाराणा प्रताप व उनके साथियों का दृढ़ निश्चय ही था, जिसकी वजह से अनेक ज़ख्मों से घायल होने के बावजूद भी फिर से मातृभूमि की रक्षा ख़ातिर कुछ ही दिन बाद दोबारा सीना ताने खड़े हो गए।
18 जून, 1576 ई. को हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया था। मुगल फौज गोगुन्दा में क़ैदियों की तरह दिन काट रही थी। अब महाराणा प्रताप के सामने सर्वप्रथम लक्ष्य था गोगुन्दा को मुगलों से मुक्त करना।
जुलाई से अगस्त माह तक महाराणा प्रताप ने जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया, वह था मेवाड़ से फतेहपुर सीकरी जाने वाले मार्ग पर नाकेबंदी करना। यह कार्य महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के स्वामिभक्त व स्वाभिमानी भीलों को सौंपा।
गोगुन्दा में तैनात मुगल फौज के लिए बाहर से आने वाली रसद को भील लोग लूट लिया करते थे, जिससे गोगुन्दा में रहने वाले मुगल भूखमरी से मरने लगे। यदि उन तक रसद पहुंच भी पाती, तो बहुत कम मात्रा में पहुंचती थी।
महाराणा प्रताप ने गोडवाड़ के परगनों व पश्चिमी मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेश में पूरी तरह से नाकेबंदी कर दी। ऐसा करने के बाद मुगल फ़ौज के लिए गुजरात व मालवा से आने वाली रसद के भी सारे मार्ग बंद हो गए।
महाराणा प्रताप की इस कार्रवाई के बाद अजमेर और गुजरात मार्ग पर भी आवाजाही प्रतिबंधित हो गई। उदयपुर और खानपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में महाराणा प्रताप स्वयं निरीक्षण किया करते थे और जहां कहीं कोई मुगल टुकड़ी दिखाई देती, उस पर आक्रमण किया जाता।
मुन्तख़ब उत तवारीख में अकबर का दरबारी लेखक अब्दुल क़ादिर बदायूनी लिखता है कि “राणा कीका ने उदयपुर और जौनपुर के बादशाही इलाकों में लूटमार करना शुरू कर दिया,
जिसके बाद बादशाह का ध्यान इस तरफ़ गया” (बदायुनी ने गलती से खानपुर की जगह जौनपुर लिख दिया)
महाराणा प्रताप कोल्यारी के पर्वतीय प्रदेश को छोड़कर कुम्भलगढ़ पधारे। कुम्भलगढ़ में महाराणा प्रताप ने अपने सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ करना प्रारम्भ किया।
मुगलों के आक्रमणों से मेवाड़ के जिस मध्यवर्ती भाग को अधिक क्षति पहुंची थी, वहां के नागरिक जीवन में महाराणा प्रताप ने सामान्यता लाने के प्रयास किए।
मेवाड़ की राजधानी गोगुन्दा पर मुगलों का कब्ज़ा होने के बाद महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को अपनी सैन्य शक्ति का केंद्र बना दिया और वहीं से वे मेवाड़ की समस्त गतिविधियों का संचालन करने लगे।
कुम्भलगढ़ दुर्ग मेवाड़ नरेश महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाया गया था, जिसमें 360 मंदिर हैं और 36 किलोमीटर लंबी दीवार है, जिसे भारत की महान दीवार भी कहते हैं।
महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ में अपनी सैनिक नीति बनाई कि जिसे जीता न जा सके, उसके आगे जान देना व्यर्थ है, परन्तु न उसे चैन से कहीं ठहरने दिया जाए और न ही जहां भी उसका कब्जा ढीला दिखाई दे, उसे उस जगह टिकने दिया जाए।
छापामार युद्ध के साथ ही शुरु हुआ महाराणा प्रताप, उनके परिवार व उनके साथियों का भीषण संघर्षपूर्ण जीवन।
अगले भाग में कुम्भलगढ़ में रहते हुए महाराणा प्रताप द्वारा अपने पड़ोसी राज्यों से मित्रता करने के बारे में विस्तार से लिखा जाएगा। साथ ही छापामार युद्धों में महाराणा प्रताप का साथ देने वाले वीर सामन्तों का भी उल्लेख किया जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)
जय परमवीर महाराणा प्रताप