महाराणा प्रताप द्वारा हल्दीघाटी की रणभूमि छोड़ने पर कई इतिहासकारों ने अलग-अलग मत रखे हैं। मेवाड़ी ख्यातों के अनुसार महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी में तीरों के अलावा 7 गहरे घाव लगे, जिनमें से 3 भाले से, 3 तलवार से व एक बन्दूक की गोली लगी।
तबकात-ए-अकबरी में निजामुद्दीन अहमद बख्शी लिखता है कि “दोनों फ़ौजों की ओर से बड़े भयंकर हमले हुए। कुछ समय के लिए तो मैदान में बड़ा खूनखराबा हुआ। उस दिन राणा कीका तब तक बड़ी बहादुरी से लड़ता रहा, जब तक कि वह तीरों और भालों की चोटों से जख्मी न हो गया”
अबुल फजल लिखता है “गर्मियों के सबब से गनीम का पीछा शाही फौज ने नहीं किया” (अबुल फ़ज़ल द्वारा गनीम यहां महाराणा प्रताप को कहा गया है। गनीम का अर्थ लुटेरा होता है, जो कि मुगल चौकियों को लूटने के
कारण ऐसा कहा गया है। मुगल लेखकों द्वारा भड़ास निकालने के लिए महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज आदि के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग कई बार किया गया)
अकबरी दरबार में मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद लिखता है “नमक हलाल मुगल और मेवाड़ के सूरमा ऐसे जान तोड़ कर लडे़ कि हल्दीघाटी के पत्थर इंगुर हो गए, पर मेवाड़ी फौज की बहादुरी उस फौज के सामने कब तक
टिकती, जिसमें अनगिनत तोपें और रहकलें आग बरसाती थीं और ऊँटों के रिसाले आंधी की तरह दौड़ते थे। हालांकि राणा की फौज हार गई, पर उस वक्त राणा के लिए उसका बचकर निकलना ही बहुत बड़ी फतह थी। राणा का जैसा पीछा करना चाहिए था,
वैसा पीछा हो न सका। बादशाही फ़ौज के मन का हौंसला मन में ही रह गया। बादशाही फौज के सिपाही ये भी सोचते थे कि कहीं ऐसा न हो कि राणा पहाड़ी के टीले के पीछे से चक्कर मारकर दूसरी ओर निकल आए और मुगल फौज के पिछले हिस्से पर हमला कर दे”
बदायूनी लिखता है “सैयदों से लड़ने वाला हाकीम खां सूर भागकर राणा के पास पहुंचा। दोनों फौजी टुकड़ियां मिल गईं और सब पहाड़ियों में भाग निकले। दरअसल जिस
जज्बे से रामप्रसाद हाथी को मुगल महावत ने काबू में किया, ये देखकर राणा के हौंसले पस्त हो गए थे और वो भाग निकला। दोपहर हो चुकी थी और गर्मी इतनी तेज थी कि हमारी खोपड़ी का खून उबलने लगा था। हमें इस बात
का भी इल्म था कि राणा पहाड़ियों में छल-कपट से काम लेता था और हो सकता है वह पहाड़ियों में घात लगाए बैठा हो, इसलिए हमने उसका पीछा ना करना ही मुनासिब समझा”
अब तक मैंने अकबर के दरबारी लेखकों के मत लिखे थे। अब राजपूताने के प्रसिद्ध इतिहासकार ओझा जी का मत कुछ इस तरह है :- “यही मानना पड़ता है कि उस समय के संसार के सबसे बड़े, सम्पन्न और प्रतापी बादशाह
अकबर के सामने एक छोटे से प्रदेश के स्वामी महाराणा प्रताप सैन्य ताकतों व साधनों की दृष्टि से कुछ भी नहीं थे, क्योंकि मेवाड़ के बहुत से नामी सरदार अकबर के चित्तौड़ आक्रमण में पहले ही वीरगति पा चुके थे, जिससे थोड़े ही
स्वामिभक्त सरदार महाराणा प्रताप के लिए लड़ने को बाकी रह गए थे। मेवाड़ का सारा पूर्वी उपजाऊ इलाका अकबर की चित्तौड़ विजय के समय से ही बादशाही इलाके में चला गया था, केवल पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश ही महाराणा प्रताप के अधिकार में था। इस सब के बावजूद
भी महाराणा प्रताप का कुलाभिमान बादशाह के आगे दूसरे राजाओं के समान सिर न झुकाने का अटलव्रत, अनेक आपत्तियां सहकर भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने का प्रण और उनका वीरत्व, ये ही उनको उत्साहित करते रहते थे।”
ओझा जी आगे लिखते हैं कि “महाराणा प्रताप के सरदार भी अपने स्वामी का अनुसरण कर युद्ध में प्राणोत्सर्ग करने को अपना क्षात्र धर्म समझते थे। महाराणा ने पहले ही आक्रमण में मुगल सेना को कोसों दूर खदेड़ दिया था,
परन्तु मुगलों की चन्दावल की चालाकी के कारण महाराणा को ससैन्य हल्दीघाटी से लौटना पड़ा। हिंदुओं के साथ की मुसलमानों की लड़ाई का लिखा हुआ वर्णन एकपक्षीय होता है, तो भी मुस्लिम लेखकों कथनों से स्पष्ट
है कि मुगल फौज की बड़ी दुर्दशा हुई थी। महाराणा प्रताप के लौटते समय भी मुगल फौज की ऐसी दशा नहीं थी कि वो महाराणा का पीछा कर सके, उल्टा उन्हें तो भय था कि महाराणा कहीं पहाड़ी क्षेत्र में मुगल फौज पर धावा न बोल दे”
इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं :- महाराणा प्रताप की सराहना की जानी चाहिए कि उस संकट की घड़ियों में भी उन्होंने अपना विवेक नहीं खोया और स्वयं को शत्रु के कब्ज़े में जाने या मारे जाने से बचाकर निकाल ले गए।
वहां से हटकर उन्होंने अपनी मातृभूमि की उससे कहीं अधिक हित साधना की, जितनी की वो हल्दीघाटी की रणभूमि में अपना बलिदान देकर कर सकते थे”
निष्कर्ष :- महाराणा प्रताप व उनके सैन्य दल ने विपरीत परिस्थितियों में अपने से 4 गुना अधिक मुगल सेना को हल्दीघाटी के रण में कड़ी टक्कर दी थी। उस समय के राजपूतों के लिए अपने प्राण देना कोई बड़ी बात नहीं थी।
महाराणा प्रताप भी चाहते तो हल्दीघाटी में वीरगति पा सकते थे, परन्तु उसका परिणाम विजय तो कभी नहीं हो पाता। महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी की रणभूमि छोड़कर मात्र उस सिंह की तरह क्रिया की,
जो कि दो कदम पीछे लेता है तो शिकार पर झपटने के लिए। हल्दीघाटी का रण छोड़ते समय महाराणा जानते थे कि ये अंत नहीं है, ये मात्र एक प्रारंभ है। प्रारंभ उस संघर्ष का जो इतिहास में अमर हो गया।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
अति सुन्दर ।