18 जून, 1576 ई. – हल्दीघाटी का युद्ध – मेहतर खां की चाल :- मुगल सेना मेवाड़ के प्रबल आक्रमण को नहीं झेल सकी और भागते हुए बनास पार कर गई।
लेकिन तभी भागती मुगल फौज को रोकने के लिए मुगल सेना के सबसे अंतिम फौजी टुकड़ी की कमान संभालने वाले मेहतर खां ने ढोल पीटकर अफवाह फैलाई कि शहंशाह खुद एक बड़ी मुगल फौज के साथ यहां आ रहे हैं।
तब कहीं जाकर मुगल फौज ने भागना बन्द किया और भागने वाले शाही सिपहसालार और सैनिक फिर से लौटकर युद्धभूमि में आ गए।
इतने में चन्दावल में तैनात फौज माधोसिंह कछवाहा और मेहतर खां के नेतृत्व में आगे बढी। मुगल फ़ौज ने छोटी लेकिन तकनीकी तोपों व बंदूकों से मेवाड़ के राजपूतों पर निशाने साधे।
हल्दीघाटी युद्ध में भीलों का योगदान :- हल्दीघाटी युद्ध में 400 भीलों का नेतृत्व पानरवा ठिकाने के राणा पूंजा ने किया था। राणा पूंजा के इस युद्ध में वीरगति पाने वाली बात सही नहीं है,
क्योंकि वे इस युद्ध में जीवित रहे व बाद में छापामार युद्ध में भी महाराणा का साथ दिया। राणा पूंजा का देहान्त हल्दीघाटी युद्ध के 34 वर्ष बाद 1610 ई. में हुआ था।
अब्दुल कादिर बदायूनी ने भीलों का कोई उल्लेख नहीं किया, क्योंकि ये 400 भील मेवाड़ी फौज में सबसे पीछे चन्दावल में खड़े थे। युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप ने भीलों की एक सैनिक टुकड़ी मुगल सेना की छावनी में भेजी। सभी मुगल युद्धभूमि में थे।
छावनी में कुछ मुगल सैनिक व रसद का सामान था। भीलों ने छावनी पर हमला कर बचे खुचे मुगलों को मारकर रसद का सारा सामान लूट लिया। इस लूट के बाद मुगल फौज को खाने पीने की जो तकलीफ हुई, उसका वर्णन अगले भागों में किया जाएगा।
सरदारगढ़ के ठाकुर भीमसिंह डोडिया का बलिदान :- राजा मानसिंह जब जगन्नाथ कछवाहा को बचाने आगे आए थे, तब उनका मुकाबला लावा सरदारगढ़ के ठाकुर भीमसिंह डोडिया से हुआ।
ठाकुर भीमसिंह डोडिया ने प्रतिज्ञा की थी कि राजा मानसिंह जिस हाथी पर बैठकर आएंगे, उसी पर भाला मारुंगा।
ठाकुर भीमसिंह डोडिया ने राजा मानसिंह के हाथी मर्दाना पर भाला मारा, लेकिन जवाबी कार्रवाई में राजा मानसिंह ने भी द्रुत गति से भाला फेंका, जिससे ठाकुर भीमसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।
युद्ध के समय कुंवर अमरसिंह की भूमिका :- 17 वर्षीय कुंवर अमरसिंह ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग नहीं लिया, क्योंकि महाराणा प्रताप ने युद्ध से पहले रनिवास का उत्तरदायित्व कुंवर अमरसिंह को दिया था।
रुपा नाम का एक भील युद्ध की शुरुआत में ही भाग निकला, जिसे कुंवर अमरसिंह ने प्रतिशोध स्वरुप उदयपुर के महलों में मार डाला।
पाली के मानसिंह जी सोनगरा का बलिदान :- पाली के मानसिंह जी सोनगरा अखैराज जी सोनगरा के पुत्र थे। ये महाराणा प्रताप के ज्येष्ठ मामा थे। हल्दीघाटी की रणभूमि में ये महाराणा प्रताप के बायीं ओर की सैनिक टुकड़ी में शामिल थे।
मानसिंह सोनगरा मुगल पक्ष के दायीं ओर खड़े सैयदों से भिड़ गए और उनसे लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। मानसिंह जी सोनगरा के हल्दीघाटी में प्राणोत्सर्ग पर समकालीन चारण कवि दुरसा जी आढा ने कुछ दोहे लिखे,
जिनका सारांश ये है कि अखैराज सोनगरा के वंशज वीर योद्धा मानसिंह भीषण शस्त्र प्रहार करते हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने अपनी तलवार से शत्रुओं के सिर तोड़े, कटार से हाथी का संहार किया और भाले से शत्रुओं के वक्ष चीर डाले।
देलवाड़ा के राजराणा मानसिंह झाला का बलिदान :- ये चित्तौड़ के तीसरे शाके में अकबर की सेना के विरुद्ध वीरगति को प्राप्त होने वाले राजराणा जैतसिंह जी झाला के पुत्र थे। राजराणा झाला मानसिंह भी सैयदों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
(पाठक मानसिंह नाम से भ्रमित न हों। हल्दीघाटी के रणक्षेत्र में मुख्य रूप से 5 मानसिंह थे। एक मुगल पक्ष की ओर से लड़ने वाले आमेर के राजा मानसिंह कछवाहा व
शेष चार मेवाड़ की तरफ से लड़ने वाले देलवाड़ा के राजराणा मानसिंह झाला, महाराणा प्रताप के भाई मानसिंह, बड़ी सादड़ी के झाला मानसिंह, पाली के मानसिंह सोनगरा चौहान)
जंग के दौरान एक दिलचस्प वाक्या हुआ, जिसे प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बदायूनी कुछ इस तरह लिखता है :- “मैं ख़ुद हरावल में था। मैंने आसफ खां से पूछा कि मेवाड़ी राजपूतों और कछवाहों में फर्क
करना मुश्किल हो रहा है, मैं किस पर निशाना लगाउँ ? आसफ खां ने कहा कि दोनों ओर से कोई भी राजपूत मरे, फायदा इस्लाम का ही है, तुम बेखौफ होकर निशाना लगाओ। वहां भीड़ इतनी ज्यादा थी कि मेरा एक भी वार
खाली नहीं गया। इस तरह दोस्त और दुश्मन राजपूतों में फ़र्क़ किए बग़ैर उन पर वार करने की वजह और पक्की हो गई। दिल सबसे वफ़ादार गवाह होता है, जो पक्की बात
बता सकता है। यह तय हो गया कि मेरा हाथ इस तरह की कार्रवाई करते-करते और भी मज़बूत हो गया। मुझे वो नेकनामी मिली, जो काफ़िरों के खिलाफ लड़ने वालों को मिलती है।”
हल्दीघाटी युद्ध में केवल वीर ही वीरगति को प्राप्त नहीं हुए, बदायूनी के कथन ने सिद्ध कर दिया कि हल्दीघाटी के इस रण में धर्मनिरपेक्षता, मुगल पक्षीय हिंदुओं का आदर, उनका सम्मान सबकुछ खेत रहे।
वे हिन्दू जो मुगल पक्ष की तरफ से लड़ रहे थे, वे बदायूनी व आसफ खां जैसे कट्टर मुसलमानों की दृष्टि में केवल रण में मरने वाले मोहरे मात्र थे।
वे लोग जिनका कहना है कि हल्दीघाटी की लड़ाई धर्म से संबंधित नहीं थी बल्कि राजनीतिक कारणों से हुई लड़ाई थी, वे बदायूनी के कथन को एक बार पुनः पढ़ें।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)
अत्यंत सुंदर है।