1576 ई. – हल्दीघाटी का युद्ध :- हल्दीघाटी युद्ध के कारण :- अकबर के विशाल साम्राज्य में मेवाड़ जैसे छोटे से प्रदेश का स्वतंत्र अस्तित्व उसके लिए असहनीय था। महाराणा प्रताप द्वारा गुजरात मार्ग पर आए दिन शाही फौज पर आक्रमण किए जाते थे।
महाराणा प्रताप द्वारा अकबर के 4 सन्धि प्रस्तावों को ठुकराया गया। कुछ पुस्तकों के अनुसार महाराणा प्रताप और राजा मानसिंह के बीच अनबन भी हो गई थी। अकबर व्यक्तिगत रुप से महाराणा प्रताप को झुकता हुआ देखना चाहता था।
अकबर ने 1567 ई. में पहली बार मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़गढ़ दुर्ग जीता था। अब 1576 ई. में अकबर ने महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ के स्वाधीन क्षेत्र को जीतने के लिए दूसरा मेवाड़ अभियान करना तय किया।
अकबर ने मेवाड़ के विरुद्ध सेना भेजने की घोषणा कर दी। अकबर चाहता था कि एक ही युद्ध से महाराणा प्रताप पर विजय प्राप्त कर ली जाए।
मैग्जीन दुर्ग :- इस दुर्ग को अकबर ने 1571-1572 ई. में अजमेर में बनवाया था। इसे अकबर का किला व अकबर का दौलत खाना भी कहते हैं। अकबर ने हल्दीघाटी युद्ध की रणनीति इसी दुर्ग में बनाई थी।
अब्दुल कादिर बदायूनी :- बदायूनी का जन्म 1540 ई. में हुआ था। धर्म के प्रति इसके विचार इतने अधिक कट्टर थे, कि इसने अकबर के धार्मिक विचारों की भी बेबाक तरह से आलोचना की।
बदायूनी ने मुन्तख़ब उत तवारीख नामक ग्रंथ लिखा। बदायूनी हल्दीघाटी युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी लेखक था। इसने हल्दीघाटी युद्ध का विस्तार से वर्णन किया है।
हल्दीघाटी युद्ध के दौरान मुगल पक्ष की ओर से जो तैयारियां वगैरह हुईं, उनका वर्णन मेवाड़ के ग्रन्थों में नहीं मिलता है, इसलिए फारसी तवारिखों का सहारा लिया गया है।
मुन्तख़ब उत तवारीख को जब मैंने पढा, तो उसमें से कई ऐसी बातें पढ़ने को मिली, जो काफी रोचक थीं। इन्हीं में से एक घटना बदायूनी ने लिखी, जिसमें बदायूनी व अकबर के बीच हुई वार्ता और बदायूनी व नकीब खां के बीच हुई वार्ता का वर्णन किया है।
ये वार्ता महाराणा प्रताप के विरुद्ध जाने वाली फ़ौज से संबंधित थी। बदायूनी लिखता है “मैं काफिरों के खिलाफ लड़ना चाहता था, तो मेरे मन में राणा के खिलाफ जंग में शामिल होने की इच्छा हुई। मैं नकीब खां के पास गया
और उससे कहा कि तुम शहंशाह से मेरे लिए सिफारिश करवाकर मुझे भी इस लड़ाई में शामिल करवा दो। नकीब खां ने मुझसे कहा कि अगर एक हिन्दु (राजा मानसिंह) इस लड़ाई की कमान न सम्भालता, तो शहंशाह से इस
लड़ाई में शामिल होने की गुहार लगाने वाला पहला शख्स मैं (नकीब खां) ही होता। नकीब खां के ऐसा कहने पर मैंने कहा कि शहंशाह के सच्चे खिदमतगार की कमान में रहकर लड़ना मेरे लिए फख्र की बात होगी, चाहे वो हिन्दु हो
या मुस्लिम, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी नज़र सिर्फ हमारे मकसद पर होनी चाहिए। मेरी बातें सुनकर नकीब खां राज़ी हो गया और उसने जाकर शहंशाह से कहा कि बदायूनी का इस जिहादी लड़ाई में शामिल होने का बहुत मन है”
(जो लोग कहते हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध का धर्म से लेना देना नहीं था, यह घटना उनके लिए सबक है। नकीब खां के मन में हिंदुओं के प्रति इतनी नफरत थी कि उनकी
कमान में लड़ने पर भी वह राज़ी नहीं था। दूसरी तरफ बदायूनी की कट्टरता ऐसी थी कि उसने बेबाक तरीके से इस युद्ध को जिहाद कह दिया।)
बदायूनी आगे लिखता है “नकीब खां की सिफारिश के बाद शहंशाह ने मुझे बुलाया और पूछा कि ‘राणा के खिलाफ लड़ने को तुम इतने उतावले क्यों हो रहे हो’।
मैंने कहा ‘हुजूर, मेरी दाढ़ी राजपूतों के खून से रंगने को उतावली हो रही है। जंग के बाद मैं राजपूतों के खून से अपनी दाढ़ी रंगना चाहता हूं। मैं आपके रास्ते में आने वाली हर मुसीबत से झूझना चाहता हूं। मेरा मन है कि आपके खातिर ही मुझे नामवारी मिले या मौत”
शहंशाह ने मुझसे कहा कि “खुदा ने करा तो तुम जीत की खबर लेकर लौटोगे’। शहंशाह ने मुझे इजाजत के साथ-साथ खुशी से 56 अशर्फियाँ भी दीं”
अब्दुल कादिर बदायूनी ने शैख अब्दुल नबी से भी विदा ली। यहां बदायूनी लिखता है “मैं नकीब खां से पहले सिफारिश की खातिर शैख अब्दुल नबी के पास गया था, पर उसने मुझे ये काम करने से मना कर दिया, क्योंकि वह
मानसिंह की कमान में रहकर न खुद लड़ना चाहता था और न मुझे भेजना चाहता था। फिर भी शहंशाह से इजाजत मिलने के बाद मैं अब्दुल नबी से विदा लेने पहुंचा, तो अब्दुल नबी ने मुझसे कहा कि
‘जब दोनों फौजों में जंग हो तब मुझे भी याद रखना और मेरी तरफ से भी दुआ मांगना। ऐसे वक्त मुझे भूलना मत। क्योंकि पैगम्बर ने जंग के दौरान दुआ मांगने का सबसे सही वक्त बताया है’।”
बदायूनी ने फातिहा पढ़ा और हथियार-घोड़ा लेकर निकल पड़ा। बंदायूनी ने इस युद्ध को गोगुन्दा का युद्ध कहा, जबकि अबुल फ़ज़ल ने इस युद्ध को खमनौर का युद्ध कहा।
(शेख अब्दुल नबी की कट्टरता तो नकीब खां से भी ज्यादा थी, क्योंकि वह तो बदायूनी को भी जंग में जाने से रोक रहा था। बदायूनी द्वारा लिखित इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में यह बात विशेष रूप से गौर करने वाली है कि जब उसने
अकबर से कहा कि मेरी दाढ़ी राजपूतों के खून से रंगने को उतावली हो रही है, इस कथन पर अकबर की प्रतिक्रिया यदि क्रोध करने वाली रही होती तो बदायूनी इस युद्ध में भाग ही न ले पाता।
लेकिन अकबर की पूर्ण रूप से सहमति थी। अकबर को इस बात की भी चिंता न रही कि राजा मानसिंह के नेतृत्व वाली सेना के समक्ष बदायूनी राजपूतों के लहू से दाढ़ी रंगेगा।
महाराणा प्रताप के समकालीन कवि दुरसा आढा जी द्वारा रचित दोहा :- अकबर पत्थर अनेक, के भूपत भेला किया। हाथ न लागो एक, पारस राण प्रतापसी।। अर्थात अकबर ने अन्य राजा रूपी कई पत्थर इकट्ठे कर लिए, परन्तु पारस रूपी एक महाराणा प्रताप हाथ नहीं लगे।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)