पिछले भाग में अकबर द्वारा भेजे गए 2 सन्धि प्रस्तावों के बारे में लिखा गया था। शेष 2 सन्धि प्रस्ताव कुछ इस तरह हैं :- तीसरे सन्धि प्रस्ताव के रूप में सितम्बर-अक्टूबर, 1573 ई. में आमेर के राजा भगवानदास कछवाहा को भेजा गया।
राजा भगवानदास आमेर के राजा भारमल के पुत्र थे। राजा भगवानदास कुछ समय के लिए महाराणा उदयसिंह के सामन्त भी रह चुके थे, पर 1562 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार करने के बाद राजा भगवानदास मेवाड़ के सामन्त पद को छोड़कर चले गए।
राजा भगवानदास ने अकबर के रणथंभौर अभियान व गुजरात अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजा भगवानदास ने ही बूंदी के राव सुर्जन हाड़ा को संधि हेतु मनाया था।
उस समय मुगल दरबार में राजा भगवानदास का पद हिन्दू मनसबदारों की अव्वल सूची में शुमार था। अकबर ने शुरुआती तीनों सन्धि दूत बड़े ही चालाकी से चुने थे। अकबर ने सबसे पहले जलाल खां को महाराणा प्रताप के पास भेजा,
लेकिन जब बात नहीं बनी तो दूसरा दूत एक राजपूत कुँवर मानसिंह को चुना। तीसरी बार राजा भगवानदास जैसे अनुभवी को चुना गया, क्योंकि उन्होंने इससे पहले राव सुर्जन हाड़ा को भी सन्धि हेतु राजी किया था।
पुस्तक अकबरी दरबार में मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाब लिखता है कि राजा भारमल राणा प्रताप का रिश्तेदार था, पर फिर भी उसका बेटा भगवानदास चित्तौड़ के घेरे में शहंशाह की ओर से ढाल की तरह खड़ा रहा।
रिश्तेदारी ये थी कि राजा भारमल के पिता पृथ्वीराज कछवाहा मेवाड़ के महाराणा सांगा के बहनोई थे। महाराणा प्रताप को अपनी ताकत दिखाकर खौफजदा करने के मकसद से राजा भगवानदास बड़नगर, रावलिया वगैरह इलाकों में लूटमार करते हुए ईडर पहुंचे।
ईडर के राय नारायणदास राठौड़ महाराणा प्रताप के ससुर थे। राय नारायणदास ने राजा भगवानदास की खातिरदारी की और बादशाही हुजूर में आने की बात मान ली। हालांकि राय नारायणदास इस वक्त बादशाही हुजूर में नहीं गए।
राजा भगवानदास ने उदयपुर में थोड़ी-बहोत तबाही मचाई और गोगुन्दा के आसपास किसी जमींदार को भी कैद किया।
महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा के महलों में राजा भगवानदास का आदर सत्कार किया, परन्तु जब भगवानदास ने सन्धि की बात की, तो महाराणा प्रताप ने साफ इनकार कर दिया।
अबुल फजल लिखता है कि “उदयपुर में बागियों को सबक सिखाकर राजा भगवानदास, शाह कुली महरम, लश्कर खां समेत कुछ सिपहसालार राणा को समझाने गोगुन्दा पहुंचे।
राजा भगवानदास को राणा अपने महल ले गया। राणा ने पिछली गुस्ताख़ियों पर शर्मिन्दगी ज़ाहिर की। राणा का दिल उजाड़ था। उसने ख़ुद न आकर अपने बेटे अमरा को राजा भगवानदास के साथ बादशाही खि़दमत में भेजा। शहंशाह ने अमरा को वापस मेवाड़ भेज दिया।”
अबुल फजल का ये लिखना कि राणा ने शर्मिन्दगी दिखाई, पूरी तरह से गलत लगता है। महाराणा प्रताप ने राजा भगवानदास के बुजुर्ग होने के कारण उनका लिहाज रखते हुए अपने महल में आदर सहित बिठाया था, जिसे अबुल फ़ज़ल ने शर्मिंदगी का नाम दे दिया।
रही बात कुंवर अमरसिंह को शाही दरबार में भेजने वाली, तो अबुल फजल ने सन्धि प्रस्ताव की असफलता को छुपाने के लिए ऐसा लिखा है, क्योंकि ये बात सिवाय अबुल फजल के किसी भी मुगल इतिहासकार ने नहीं लिखी।
अबुल फजल की इस बात को गलत साबित करने के लिए किसी मेवाड़ी इतिहासकार के प्रमाण रखने की जरुरत नहीं, क्योंकि ये काम जहांगीर ने कर दिया।
तुजुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर लिखता है कि “राणा अमरसिंह ने हिन्दुस्तान के किसी बादशाह को नहीं देखा। उसने और उसके बाप-दादों ने घमंड और पहाड़ी मकामों के भरोसे किसी बादशाह के पास हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की है।”
चौथी व आखिरी बार अकबर ने महाराणा प्रताप को मनाने के लिए दिसम्बर, 1573 ई. में राजा टोडरमल को भेजा। राजा टोडरमल पहले अफगान बादशाह शेरशाह सूरी की सेवा में रहे थे। बाद में अकबर के नवरत्नों में शुमार हुए।
राजा टोडरमल ने सर्वाधिक ख्याति भूमि सुधार में अर्जित की थी। राजा टोडरमल ने गुजरात से लौटते वक्त महाराणा प्रताप से मुलाकात की।
राजा टोडरमल ने महाराणा को भविष्य में होने वाले युद्धों से बचने की चेतावनी दी, पर वह भी महाराणा को मनाने में नाकामयाब रहा।
अबुल फजल लिखता है कि “राजा टोडरमल जब राणा को समझाने गया, तो राणा ने अदब के साथ चापलूसी भी दिखाई, पर बादशाही हुजूर में आने में नाइत्तिफाकी दिखाई।”
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा कि “स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की अपनी स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनाए रखना है और उसके प्रतिफल को जनता के लिए पूर्ण करना है।
इस कठिन कार्य को पूरा करने में महाराणा प्रताप के जीवन से मिलने वाली जो प्रेरणा है, वह हमारे लिए सहायक होगी।”
अगले भाग में सन्धि प्रस्तावों की असफलता, महाराणा प्रताप द्वारा गुजरात मार्ग पर मुगल फौज को लूटने व हाकीम खां सूर के मेवाड़ आगमन के बारे में लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)