1551 ई. – जैसलमेर महारावल लूणकरण का देहान्त। इनके पुत्र कुंवर मालदेव हुए, जो महाराणा प्रताप के बहनोई थे।
1552 ई. – “कुँवर प्रताप का चित्तौड़गढ़ आगमन” :- कुंवर प्रताप 12 वर्ष तक कुम्भलगढ़ में रहे। फिर चित्तौड़गढ़ में पधारे। कुंवर प्रताप ने मेड़ता के जयमल राठौड़ से तलवारबाजी व भाला चलाने की कला सीखी।
एक किस्से के अनुसार रानी धीरबाई भटियाणी को कुंवर प्रताप की वीरता से ईर्ष्या हुई, तो महाराणा उदयसिंह ने अपनी प्रिय रानी की बात मानते हुए कुंवर प्रताप को तलहटी में रहने के लिए भेज दिया।
महाराणा उदयसिंह ने 10 राजपूतों को भी कुंवर प्रताप की सेवा खातिर तलहटी भेज दिया। इसी तरह कुंवर प्रताप का सम्पर्क भीलों से हुआ।
कुछ समय बाद महारानी जयवन्ता बाई अपने पुत्र कुंवर प्रताप के साथ दुर्ग के नीचे स्थित महल में रहने लगीं। इसी महल के पास भामाशाह भी रहते थे। कुंवर प्रताप और भामाशाह बचपन के मित्र थे।
22 मई, 1554 ई. – “जगमाल का जन्म” :- महाराणा उदयसिंह व रानी धीरबाई भटियाणी के पुत्र जगमाल का जन्म हुआ। जगमाल महाराणा उदयसिंह का 9वां पुत्र था।
1554 ई. – “जैताणा का युद्ध” (कुंवर प्रताप का प्रथम युद्ध) :- महाराणा उदयसिंह ने डूंगरपुर रावल आसकरण पर कुंवर प्रताप के नेतृत्व में सेना भेजी। ये युद्ध बांसवाड़ा के आसपुर में सोम नदी के किनारे हुआ।
डूंगरपुर के रावल आसकरण ने राणा सांवलदास के नेतृत्व में फौज भेजी। राणा सांवलदास के भाई कुँवर कर्णसिंह का सामना कुँवर प्रताप से हुआ। कुँवर प्रताप की तलवार के एक ही वार से कुँवर कर्णसिंह काम आए।
मेवाड़ की ओर से आमेट के जग्गा जी वीरगति को प्राप्त हुए। जग्गा जी चुंडावत राजपूतों के मूलपुरुष रावत चुंडा जी के पुत्र रावत कांधल जी के पुत्र रावत सीहा जी के पुत्र थे।
जग्गा जी चुंडावत के पुत्र :- १) कुँवर पृथ्वीराज सिंह चुंडावत २) वीर कुँवर पत्ता चुण्डावत :- चित्तौड़ के तीसरे शाके में काम आए। ३) कुँवर भीमसिंह चुण्डावत ४) कुँवर अर्जुनसिंह चुण्डावत
जैताणा के इस युद्ध में मेवाड़ की विजय हुई और 14 वर्ष के कुंवर प्रताप ने वागड़ के बड़े हिस्से पर अधिकार कर मेवाड़ में मिला लिया। ये कुंवर प्रताप के कुंवरपदे काल (राज्याभिषेक से पूर्व) की पहली उपलब्धि थी।
“कुंवरपदे काल (राज्याभिषेक से पूर्व) की दूसरी उपलब्धि” :- कुंवर प्रताप ने छप्पन के राठौड़ों को पराजित कर छप्पन (56 गांवों के समूह) पर अधिकार कर लिया। बांसवाड़ा-प्रतापगढ़ के बीच का भाग छप्पन कहलाता है।
“कुँवरपदे काल की तीसरी उपलब्धि” :- महाराणा उदयसिंह ने कुँवर प्रताप को सेना सहित गोडवाड़ पर आक्रमण करने भेजा। कुँवर प्रताप विजयी रहे व गोडवाड़ का क्षेत्र मेवाड़ में मिला लिया गया।
27 जनवरी, 1556 ई. :- मुगल बादशाह हुमायूं की पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर मृत्यु हुई
14 फरवरी, 1556 ई. :- कलानौर में बैरम खां के संरक्षण में हुमायूं के बेटे अकबर की गद्दीनशीनी
5 नवम्बर, 1556 ई. – “पानीपत का दूसरा युद्ध” :- जिन दिनों कुँवर प्रताप मेवाड़ व उसके आसपास के क्षेत्रों में बगावत करने वालों को मेवाड़ के अधीन कर रहे थे, उन्हीं दिनों अकबर अपने सरंक्षक बैरम खां के नेतृत्व में सर्वोच्च सत्ता हासिल करने की फ़िराक में था।
8 अक्टूबर, 1556 ई. को 22 युद्धों के विजेता हेमू ने 50 हज़ार सवार, 1000 हाथी और 150 तोपों के साथ चढ़ाई करके तर्दी बेग को परास्त कर दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
5 नवम्बर, 1556 ई. को बैरम खां के नेतृत्व में मुगल फौज ने हेमू की फौज को परास्त किया। हेमू की पराजय का प्रमुख कारण उसकी आंख में तीर लगना था। हेमू का कत्ल कर दिया गया।
पानीपत के युद्ध के बाद अकबर ने गाज़ी की उपाधि धारण की। हेमू के पिता को जब कैद करके मुस्लिम धर्म अपनाने को कहा गया, तो उन्होंने कहा कि “80 वर्ष जिस धर्म में रहा, उसे अपने अंतिम दिनों के लिए क्यों बदलूँ ?” हेमू के पिता को भी मार दिया गया।
25 जुलाई, 1556 ई. – “सागरसिंह का जन्म” :- महाराणा उदयसिंह व रानी धीरबाई भटियाणी के पुत्र सागरसिंह का जन्म हुआ। सागरसिंह मेवाड़ के लिए संकट का कारण बना। इसने अकबर व जहांगीर का साथ दिया।
1556-57 ई. :- अकबर ने मेवात, जैतारण, अजमेर व नागौर पर विजय प्राप्त की। ये सभी विजय अकबर ने बैरम खां के संरक्षण से हासिल की।
इन्हीं दिनों अकबर ने सिकंदर सूर को मानगढ़ किले में घेर लिया। 6 माह तक घेराबंदी रही, जिसके बाद सिकन्दर ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
1557 ई. – “हरमाड़े का युद्ध” :- हाजी खां व राव मालदेव की सम्मिलित सेना द्वारा महाराणा उदयसिंह की मेवाड़ी सेना की पराजय हुई। इस युद्ध में कुंवर प्रताप ने भाग नहीं लिया था। इस युद्ध का वर्णन महाराणा उदयसिंह के इतिहास में कर दिया गया है।
प्रसिद्ध क्रांतिकारी खरवा ठाकुर राव गोपालसिंह जी ने लिखा था कि “वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की तलवार, छत्रपति शिवाजी महाराज या वीर राठौड़ दुर्गादास किसी की भी तलवार मान ली जाए, एक ही
बात है। इसकी तीखी धार कभी मंद नहीं होती। यह वैसी ही कठोर और वैसी ही तेज धार युक्त बनी रही है और बनी रहेगी, जैसी की उन प्रातः स्मरणीय वीरों के
हाथ में बनी रही थी। अधिक समय तक काम में न लाने से यदि कुछ जंग लग भी जाता है, तो कर्तव्य-धर्म-बल से उठे हुए हाथ से चलने एवं रूधिर से धुलने पर वह अधिक तेज होकर अधिक चमकने लगती है।”
अगले भाग में महाराणा प्रताप की रानियों व पुत्र-पुत्रियों के बारे में लिखा जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत ठि. लक्ष्मणपुरा (मेवाड़)