25 फरवरी, 1568 ई. – चित्तौड़ का भीषण नरसंहार
रावत पत्ता चुण्डावत के बलिदान के बाद अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग में कत्लेआम का हुक्म दे दिया। चित्तौड़ के लोग मन्दिरों व मकानों के बाहर तलवार, भाले, पत्थर वगैरह लेकर खड़े हो गए और बादशाही सैनिकों पर वार किए।अकबर ने दुर्ग में 30,000 नागरिकों को मरवाया व बाकि बचे 10,000 स्त्रियों व बच्चों को दास बना कर ले गया।
अबुल फजल लिखता है “चित्तौड़ की रअय्यत (प्रजा) लड़ाकू थी, इसलिए शहंशाह ने कत्लेआम का हुक्म दिया”
मेवाड़ की तरफ से लड़ने वाले काल्पी के 1000 अफगानों में कईं तो कत्ल हुए और कईंयों ने चालाकी से अपने ही बाल-बच्चों को बांधकर दुर्ग से बाहर निकलने की तैयारी की। मुगलों ने इन्हें मुगल समझकर नहीं रोका और ये बचने में कामयाब रहे।
अबुल फजल के अनुसार “शहंशाह के हुक्म से काल्पी के बचे-खुचे अफगानों के सर काटकर उनका ढेर लगाया गया”
अकबर के हुक्म से किले में अपनी जान देने वाले बहादुर राजपूतों व प्रजा के शवों से यज्ञोपवीत उतरवा कर तोले गए, तो इनका वजन साढ़े 74 मन हुआ (उस समय 4 सेर का एक मन होता था) (यज्ञोपवीत :- ये गले या भुजा में पहना जाता था)। किले में तीन जगह शवों का ढेर सबसे ज्यादा लगा व यहां हजारों लोग और सैकड़ों राजपूतों ने बलिदान दिए :- १) राणा के महल में
२) रामपोल दरवाजे पर :- पत्ता चुण्डावत इसी दरवाजे से कुछ दूरी पर कई राजपूतों समेत काम आए थे। बारिकी से निरीक्षण करने पर रामपोल दरवाजे पर खून के दाग आज भी देखे जा सकते हैं।

३) महादेव मन्दिर में
मुगलों ने बप्पा रावल द्वारा निर्मित कालिका माता के मन्दिर को काफी नुकसान पहुंचाया था। साथ ही साथ कईं मन्दिर ध्वस्त कर दिए गए और कईयों की तो आज तक मरम्मत नहीं हुई है। चित्तौड़ दुर्ग में आज भी कईं मन्दिरों के शिखर नहीं है। चित्तौड़गढ़ के भीषण नरसंहार पर लिखे गए विभिन्न लेखकों के कथन :-
अकबर का दरबारी लेखक अबुल फ़ज़ल लिखता है :- “यह बहुत ही शानदार जीत थी, जिसने शहंशाह की बढ़ती सल्तनत पर कशीदाकारी कर दी। इस जीत से तमाम हिंदुस्तान में बादशाही हुकूमत से बगावत करने वालों के मन का घमंड तितर-बितर हो गया। चित्तौड़ फ़तह का हाल लिखना तो इक़बाल (सौभाग्य) का हाल लिखने जैसा है”
अकबर का दरबारी लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है :- “जो बचे थे वो सब घड़ियाल जैसी खून की प्यासी तलवार के वार से मारे गए। जो आग और तलवार से बच गए थे, वो बग़ावत के जाल में फंसकर मारे गए। मुगलों की तलवारों ने नीच लोगों का कत्ल करने से ख़ुद को नहीं रोका। मुगलों की तलवारें तब तक म्यान में वापिस नहीं आई, जब तक दोपहर में आराम करने का वक़्त नहीं आ गया। 8 हज़ार बेख़ौफ़ राजपूत कत्ल कर दिए गए। दोपहर बाद शहंशाह ने क़त्लेआम रोकने का हुक्म दिया”
केम्ब्रिज हिस्ट्री में लिखा है :- “चित्तौड़ के युद्ध में अकबर ने जो निर्दयता दिखाई थी, उसे याद करके आज भी हृदय कांप उठता है। अकबर की कीर्ति सदा के लिए कलंकित हो गई”
विंसेंट स्मिथ लिखता है :- “चित्तौड़ के किले में 8000 राजपूतों ने मृत्यु का व्रत धारण कर जीवन का अधिकतम मूल्य चुकाकर अंतिम व्यक्ति तक अपने प्राणों का बलिदान दिया। अपनी सेना के विरुद्ध राजपूतों द्वारा ऐसी हठपूर्वक की गई कार्यवाही के लिए अकबर ने खीजकर नगरवासियों के साथ कठोरता का व्यवहार किया। घेराबंदी के समय दुर्ग के 8000 राजपूतों की 40,000 किसानों ने सहायता की थी, इसलिए अकबर ने नरसंहार का आदेश दिया। परिणामस्वरूप 30,000 नागरिक मारे गए और 10,000 बंदी बना लिए गए”
इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं :- “अपर्याप्त शस्त्रों से चित्तौड़ के नागरिकों ने मुगलों का सामना किया, लेकिन मुगलों की अधिक शक्ति के कारण नागरिकों को सफलता नहीं मिली। एक समय था जब यह किला सम्पदा और वैभव से दमदमाता रहता था, पर अब यहां लपटें, धुंआ और ज़ले मकान शेष रह गए। तोड़े गए मंदिरों, स्तंभों व भवनों के खंडहर, जो अब भी दुर्ग में मौजूद हैं, अकबर की क्रूरता की निशानी हैं। कई मंदिरों व स्मारकों का तो कोई निशान तक मौजूद नहीं है। इस बहुसंख्यक नरहत्या ने बादशाह अकबर की स्मृति व चरित्र पर ऐसा बड़ा धब्बा लगा दिया है कि वह क्षमायाचना के किसी प्रयत्न के योग्य भी नहीं है”

अगरचन्द नाहटा लिखते हैं कि :- “चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 16वीं सदी में 32 जैन मंदिर थे। चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी ने हमला करके जो विध्वंस किया, उससे कहीं अधिक क्रूर विध्वंस अकबर ने किया। इस समय अनेक भव्य मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया”
* अगले भाग में अकबर द्वारा वीरवर जयमल जी व वीरवर पत्ताजी की मूर्तियां बनवाने व चित्तौड़गढ़ युद्ध के निष्कर्ष का वर्णन किया जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)