“चित्तौड़ का तीसरा साका”
अकबर चित्तौड़ जीतकर अजमेर गया। अजमेर में ही उसने 9 मार्च, 1568 ई. को चित्तौड़ विजय का फतहनामा जारी किया। ये फतहनामा कुछ इस तरह लिखा गया कि अकबर बोलता रहा और लिखने वाला लिखता रहा। इस तरह ये फतहनामा अकबर की आवाज है, जो कुछ इस तरह है :-
“अली कुली और उसके नमकहराम मददगारों को कत्ल करने के बाद हम आगरा पहुंचे और वहां से हाथियों के शिकार के ज़रिए सेरो तफरीह में इजाफा करने की गर्ज से हमने शिवपुर और गागरोन के मकाम पर पड़ाव डाला। फिर हम चित्तौड़ के इलाके की सरहद तक पहुंचे, वहां हमारी तवज्जो इस तरफ दिलाई गई कि राणा उदयसिंह ने, जिससे यह उम्मीद की जाती थी कि वह (राणा) आगे बढ़कर हमारा खैर मकदम (स्वागत) करेगा, एक ताबेदार की हैसियत से हाज़िर होगा, ज़मीवोस का फर्ज अदा करेगा या अपने बड़े बेटे (प्रताप) को पेशकश के साथ दरगहेशाही में भेजेगा।
इसके बजाय उसने खुदबीनी और गुरूर की बिनाह पर तकब्बुर (अपने को बड़ा मानना) और गुरूर का तर्जेअमल इख्तियार किया है और वह चित्तौड़ के किले में अशियाए खोरोनोश (खाने-पीने का सामान) कसीर मिकदार (बड़ी मात्रा) में जमा करने में लगा हुआ है । खुदा उस (राणा उदयसिंह) को नेस्तनाबूत करे। चित्तौड़ का किला उसकी खानदानी कयामगाह (निवास स्थान) है। वह किला अपनी मज़बूती और अज़मत (बड़ाई) के लिहाज़ से हिन्दोस्तान के तमाम किलों में मशहूर है। उस (राणा उदयसिंह) का मकसद यह था कि वह इस किले में पनाहगुंजी हो जायेगा (शरण ले लेगा)।
इस ज़माने में क्योंकि हमारे ख्यालात में जंग और जिहाद का जलवा था, लिहाज़ा राणा का तर्जे अमल शाही खफगी (नाराज़गी) का बाइस हुआ (कारण बना) और अल्लाह के दीन की हमीयत और शाही गुस्से की आग भड़क उठी। हमने इस काफिर (राणा उदयसिंह) को तहस-नहस करने की तरफ अपनी लगाम फेर दी। शाही झण्डों के पहुंचने के खौफ से इस (राणा) ने अपने चाचा साहीदास (रावत साईंदास चुण्डावत), जैमल (जयमल राठौड़) और उदयबान पत्ता (उदयभाण पत्ता चुण्डावत) को पाँच हज़ार चीदा (चुने-चुने) राजपूतों और अपनी फौज के एक हज़ार सिपाहियों और दूसरे दस हजार आदमियों (प्रजा) को किले की हिफाजत के लिए तैनात कर दिया।
साहीदास, जैमल और उदयबान पत्ता अपनी बहादुरी के लिए काफिरों में बड़ी शौहरत रखते थे। अल्लाहतआला उनकी पुश्त पनाही से हाथ उठा ले और उन्हें ज़हन्नम रसीद करे। ये तीनों अपनी जांबाज़ी और बहादुरी के लिहाज से एक हज़ार घोड़ों की ताकत के बराबर समझे जाते हैं। राणा खुद उदयपुर और कोबलमेर (कुम्भलगढ़) के लिए भाग गया था। वे मकामात जंगलों और पहाड़ों के तहफ्फुज में वाके थे (शरण में स्थित थे)।रामपुर के मकाम पर जो चित्तौड़ से मुलहिक (नज़दीक लगा हुआ) एक मशहूर कस्बा है। जब यह बात मालूम हुई कि वह इस तरह के मन्सूबे बना रहा है, शाही दिमाग (हम) ने अल्लाह की मदद से चित्तौड़ के किले को फतह करने और उसके बाद मुनासिब अकदाम (उचित कदम) उठाने का पक्का इरादा किया।
इस तरह हम बरोज जुमेरात 20 रबीउस्सानी 975 हिजरी (24 अक्टूबर, 1567 ई.) को मुहासिरा (घेरा डालने) की गरज से किले के करीब पहुंचे। वहां हमें ऐसा एक किला नज़र आया, जिसके सामने अलबुर्ज नामी पहाड़ी अपनी अजमत और बलन्दी में एक चट्टान के मानिन्द मालूम होती थी और इसकी फसील (चारदीवारी) में तुर और हिन्दूकुश पहाड़ दीवारों की तरह समा सकते हैं। जिसने इस किले की तामीर की थी, उसने इसकी बुनियाद एक बहुत सख्त चट्टान पर रखी थी। आसमान के मानिन्द बलन्द एक चट्टान इसने इसकी बुनियाद में रखी थी। सिकन्दर के पुश्ते की तरह इसकी बुनियाद रखी गई थी। इसकी फसील की ऊँचाई औजे फलक (आकाश की ऊँचाई) को चूमती है, जो फरिश्तों के भी वहां तक पहुंचने में रुकावट का काम करती है। किला चारों तरफ से तीन फरसन है और इसमें हथियार चलाने के लिए बने सुराखों को गिनना तो नामुमकिन है। हालांकि इस किले का मुहासिरा (घेरना) नामुमकिन मालूम हो रहा था, लेकिन अल्लाहतआला के फजलोकरम और खुदा रसीदा बुजुर्गों की मदद की बिना पर जिस मकसद की तरफ हमने अपना पहला कदम बढ़ाया वहां हमें हस्ब ख्वाहिश (इच्छानुसार) कामयाबी हासिल हुई।
इसी दिन हमने किले के कुर्बो ज्वार (आसपास) बड़े गौर से मुआइना किया और शाही मुलाजिमों की जमाअत के खानों, सुल्तानों और अमीरों में से हर एक आदमी के लिए अलग-अलग मकाम मुताअइय्यन (स्थान नियत) कर दिये गये। पहाड़ों को पार करने वाले जंगजूओं, जंग के मैदान में दिलावरों (बहादुरों), दिलोजान से जिहाद करने वालों और शहादत को दुनियां और उकबा (परलोक) को एक बड़ा इनाम समझने वालों ने बुर्जों और फसील की दिवारों पर चढ़ने और अल्लाह की मदद और इसके भरोसे पर जो शाही कूब्बत का मरवज (स्रोत) है। दिलेराना हमले करने और फौजी कूब्बत (ताकत) से इस किले पर कब्जा करने की इजाजत चाही। चूंकि उन जाहिलों (राजपूतों) ने किले के तहफ्फुज (सुरक्षा) के लिए इतनी ज्यादा तादाद में तोप, बन्दूक, मनजीक, जिराएसेकल, नफत और नाविक जमा कर रखे थे कि अगर लगातार यह जंग चलती रहती, तो यह सामान तीस साल के लिए काफी होता।
इसके अलावा उन लोगों का इस लड़ाई के सामान, किले की मज़बूती और अपनी बहादुरी पर बहुत ज्यादा एतिमाद (भरोसा) था, इसलिए हमने मुसलमानों की जानें बचाने के मकसद से शाही सिपहसालारों को इस ख्याल से कि कहीं ऐसा न हो कि जल्दबाजी में उनमें से बाज मारे जायें, उन्हें इस बात की इजाजत नहीं दी। हमने अजहदों की तरह की तोपों, वेगो और दूसरे अकसाम (तरह) के उन तोपखानों को मंगवाया, जो दारुलखिलाफा (राजधानी) में पीछे छोड़ आये थे। इनके अलावा शाही खेमे में तोपों और पहाड़ों को तोड़ने वाली छोटी तोपों को बनाने का हुक्म दिया और यह तय किया कि सुरंगें खोदने और सरकोब और साबात तक पहुंचने के बाद ही हमला किया जायेगा। बायें बाजू के फौजी दस्ते की एक टुकड़ी को हमने उदयपुर पर हमला करने और वहां के बाशिन्दों, राणा की फौजों और साथियों को जो वहां मौजूद थे, कत्ल करने और कैदी बनाने के लिए भेजा।
राणा खुद वहीं से दस कोस की दूरी पर मुकीम (ठहरा हुआ) था। एक दूसरी फौज हमने रामपुर कस्बे को लूटने और तहस-नहस करने के लिए भेजी। बहुत से नाकारा काफिरों को कत्ल करने के बाद वह सिपाही बेशुमार माले गनीमत (लूट का माल) साथ लेकर वापस आये। तोपखाने के पहुंचने और साबात की तकसील होने, सुरंगों को बारुद से उड़ा देने और बुर्जों और फसीलों को गिरा देने के बाद हमने अपनी फौज को हुक्म दिया कि वह जाकर फसील (चारदीवारी) के नीचे खड़ी हो जाये और चारों तरफ से किले को घेर ले। इस वक्त इस्लामी फौज की कूब्बत और शुजाअत (बहादुरी) और अपने बादशाह की तकब्बुर का जब इस ज़हन्नुमी कौम (राजपूतों) को बखूबी इल्म हो गया, तो उन्होंने बड़ी आजिजी, इनकिसारी (नम्रता), इताअतपजीरी (आज्ञाकारिता) के साथ शफाअत (बख्शीश) की दरख्वास्त की और उनके कुछ सरदार इस दरख्वास्त को लेकर बाहर निकल आये।
इस हकीकत के बावजूद की उन्होंने बहुत से मुसलमानों, अमीरों और आम मुसलमानों को बन्दूकों और मनजीकों के पत्थरों को लगातार बरसाकर मार डाला था, उन्होंने ऐसी नामुमकिन शर्तों पर सुलह चाही, जिनका कुबूल करना मुमकिन नहीं हो सकता था। इसलिए उन्हें वापस जाने की इजाजत दे दी गई। दूसरे दिन खुद मैं मीरे बाहर मोहम्मद कासिम खां की साबात के करीब पहुंचा, जो किले से करीब थी और मैंने जंग-इ-सुलतानी शुरु करने का हुक्म दिया। इस्लामी फौज ने इस यकिन के साथ कि अल्लाह की मेहरबानी काफी है और उससे अच्छा हिफाजत करने वाला दूसरा नहीं है, बे-खोफो-खतर और बड़ी जवांमर्दी से हमला कर दिया।
यहूदियों की तरह काफिरों की जांबाज जमाअतों ने किले के अन्दर से फसाद और जंग की आग को लगातार मनजीको के पथराओं और तोपों की बारिश से मुशतइल (जोश में) कर दिया। शुजाअत के जंगल के शेरों और पहाड़ी जंगलों के चीतों ने अपनी बेहद शुजाअत (बहादुरी) की हालत में अपने तमा (लालच) का हाथ ताज (किले) तक पहुंचा दिया और बड़ी दिलावरी से बहराम के सर से ताज उतार लिया। इस हुक्म के मुताबिक कि जहां तक तुमसे हो सके, तुम लोग उनके मुकाबिले के लिए तैयार रहो, इनमें से हर फर्द (शख्स) पहाड़ की तरह डटा रहा, दुश्मनों के सरों को पैरों तले रौंद डाला। वे लोग जमशेद की मजलिस से जाम उठाते गए और बहराम के सर से ताज उतार लिया। जंग के दिन इन्होंने इतना शोरोगुल किया कि कोहेकाफ तक इनसे गूंज उठा। इस भारी आवाज़ ने इन दुश्मनों (राजपूतों) पर, जो पहाड़ की मानिन्द अपने मजबूत कदमों पर खड़े थे, ऐसा असर किया जैसा चिंगारी का असर घास-फूस पर होता है। एक फौजी दस्ता दूसरे से बाज़ी लेने की कोशिश कर रहा था।एक दूसरे से पूरी तरह मुत्तहिद (एक) होकर वे लोग किले की बुर्जों और दीवारों तक पहुंच गए, जिनमें तोपों की मारों से शिगाफ (दरारें) पड़ गई थीं। तीरों से जख्मी सूअरों के गिरोग की तरह इस जमाअत (राजपूतों) के लोग बाहर निकल आए और अन्दर दाखिल होने वालों का रास्ता नेजो और तीरों के वारों से बन्द कर दिया।
इसके खिलाफ शाही फौज ने तीरों और पत्थरों के वारों से जवाबी हमला किया और पीछे हटते हुए राजपूतों को तितर-बितर कर दिया। लगातार गोलाबारी करके उन्होंने दुश्मनों के खिरमने हयात (ज़िन्दगी के खलिआन) पर आग लगा दी। इनतिकाम (बदला लेने) की आग दायें-बायें भड़क उठी, गर्दे गुबार आलूदा हो गई और आसमानी आग से दुश्मन की सफ (पंक्ति) का हर फर्द बेचैन था और हर शख्स ज़हन्नुम (नरक) की आग से जल रहा था। बन्दूकों के धुँए और चिंगारी से कमान कौसोकजह (इन्द्रधनुष) की तरह मुखतलिफ रंगों की नज़र आ रही थी। इस तरह तीन दिन और रातें गुजर गई, दोनों तरफ से एक लम्हे के लिए भी जंग बन्द नहीं हुई। लोमड़ी की मानिन्द इन धोखेबाजों और मक्कारों की चालबाजियों को जंगल के शेरों ने नाकाम बना दिया। बिलआखिर जैसा कहा गया है काश ये काफिर इस हैसियत को जानें कि जब दोजख की आग उनको आकर घेरेगी, तब न ये अपने मुंह के आगे और न पीठ के पीछे से उसको रोक सकेंगे।
जुमेरात शाबान 25/975 हिजरी (23 फरवरी, 1568 ई.) को आग बरसाने वाले गोलों और तोपों का एक ऐसा सिलसिला जारी किया गया कि ज़हन्नुमी लोगों में मुकाबले की ताब बाकी नहीं रही। कीना परवर (दुश्मनी रखने वाले) जंगजू, खंजर चलाने वाले बहादुर, जिन्होंने दुश्मन को कलाकुया (खत्म) करने के लिए कमर कस ली थी। खूंरेजी की ज्यादती की वजह से कमर तक खून में खड़े थे। रात के वक्त मैं चित्तौड़ बुर्ज पर खड़ा था कि तभी किले का कोई खास सिपहसालार नज़र आया और मैंने अपनी संग्राम नामी मशहूर बन्दूक से गोली दागी। गोली लगने के बाद वह नज़र नहीं आया। बाद में मालूम पड़ा कि वह जयमल राठौड़ था।
अगले दिन फिर लड़ाई शुरु हुई और साढ़े तीन सौ हाथियों को किले में तबाही मचाने छोड़ दिया। कत्लेआम के हुक्म के मुवाफिक हमारे बहादुर बेहतरीन काम कर रहे थे।काफिरों के मुकाबले में शिगाफों पर कब्जा करने के लिए वे लोग जमाअतों (टोलियों) की सूरतों में आगे बढ़े और अगली सफों (पंक्तियों) में बेखौफ जा खड़े हुए और इस तरह इनका गुलबा हो गया (छा गए)। इन्होंने अपनी खूंचुकां तलवारों से राजपूतों के कुश्तों (लाशों) के पुश्ते लगा दिए और जो कत्ल होने से रह गए, वे इधर-उधर भागने लगे। इनका पीछा किया गया और इन्हें दोजख के सबसे गहरे गड्ढे में डाल दिया गया। जीत हासिल करने वाली सारी फौज किले में दाखिल हो गई। मैं काफिरों के गोविन्दश्याम मन्दिर के पास पहुंचा, जहां एक शख्स जमइयत लिए बड़ी बहादुरी के साथ लड़ रहा था। आखिरकार हमारी फौज का महावत उस जख्मी शख्स को हाथी की सूंड में उठाकर हमारे करीब लाया। उस वक्त वो जिन्दा था, पर फिर मर गया। दर्याफ्त करने पर मालूम पड़ा कि वो काफिरों में मशहूर जंगज़ू नामी बहादुर पत्ता जगावत था, खुदा उसे ज़हन्नुम रसीद करे।
मैंने हुक्म दिया कि सारे मूर्तिपूजकों का एक साथ कत्ल कर दो। मेरे हुक्म के मुवाफिक मुदाफिईन (बचाव करने वाली प्रजा) को, जो अब भी मुकाबला कर रहे थे और जिन्होंने दो-दो तीन-तीन सौ आदमियों की जमाअतें बना ली थीं, कत्ल कर दिया गया और उनके बीवी-बच्चों (प्रजा) को कैदी बना लिया गया। बेशुमार नकद और माल गनीमा (लूटे हुए सामान) की सूरत में हाथ लगा। उन लोगों की जड़ कट गई, जिन्होंने जुर्म किया था।
मीर मोहम्मद खान बहादुर, कुतुबुद्दीन मोहम्मद खान बहादुर, दूसरे अजीम खान और शानदार सुल्तान, साथ-साथ सैयद, उलमा, शैख, शरीअत के गाज़ी और दूसरे बड़े लोग, पंजाब सरकार में मौजूद, वहां बसने वाले, चौधरी, कानूनगो, रिआया (प्रजा) और मुजारीन (किसान) के पास ये पाक फतहनामा भिजवा दिया गया, ताकि शाही सिपहसालारों और फौजों की हौंसला अफज़ाई हो सके और इससे आगे भी शानदार जीत मिलती रहे।”
(चित्तौड़ का तीसरा शाका समाप्त)
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
Bhiya ji main mewad k etihaash k bare me likha tha hu, kripya mera margdarshan kare