मेवाड़ महाराणा उदयसिंह (भाग – 18)

नवम्बर-दिसम्बर, 1567 ई. को हुए “संधि के प्रयास” :- चित्तौड़गढ़ के इस भीषण युद्ध के बीच 3 बार संधि प्रस्ताव भेजे गए। इनमें से एक बार चित्तौड़गढ़ में तैनात राजपूतों ने व दो बार अकबर ने कूटनीति से संधि के प्रयास किए।

“मेवाड़ की तरफ़ से रावत पत्ता चुंडावत द्वारा भेजा गया प्रस्ताव” :- मेवाड़ की तरफ से डोडिया ठाकुर सांडा व रावत साहिब खान चौहान को अकबर के पास भेजा गया था, क्योंकि इस वक्त किले में 40,000 निर्दोष प्रजा भी थी। इसलिए मेवाड़ की तरफ से इन दोनों ने अकबर के सामने प्रस्ताव रखा कि “हम आपको मुंह मांगा धन देंगे, यदि आप यहां से घेरा उठा लेवें”। अकबर ने कहा कि “जरुर, अगर राणा उदयसिंह हमारी चौखट चूम ले, तो हम ये घेरा उठा देंगे। राणा के आये बगैर ये लड़ाई बन्द नहीं हो सकती। इसके सिवा जो तुम मांगो, दिया जाएगा”।

रावत पत्ताजी चुंडावत की प्रतिमा

डोडिया ठाकुर सांडा ने कहा कि “जब मैं वीरगति को प्राप्त हो जाऊं, तो हिन्दू रीति से मेरे शव को जला दिये जावे”। अकबर ने डोडिया ठाकुर सांडा की बात मान ली। फिर दोनों सरदारों ने चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश किया।

इस घटना को अबुल फ़ज़ल कुछ इस तरह लिखता है :- “जब किले से सुलह का पैगाम लिए 2 राजपूत आए, तो सब सिपहसलारों ने शहंशाह को सलाह दी कि इस बहुत ज्यादा मुश्किल लड़ाई को बंद करके ये सुलह मान लेनी चाहिए। पर शहंशाह ने इज्ज़त को तवज्जो देकर राजपूतों के सामने शर्त रखी कि राणा के मेरे सामने आते ही घेरा उठा लिया जाएगा। हालांकि बादशाही सिपहसलार इस लंबे वक्त से चले आ रहे घेरे और लड़ाई से तंग आ चुके थे और उन्होंने मुश्किलों से भरी इस जगह से निकलने की बहुत कोशिश की, पर उन्हें कामयाबी नहीं मिली। किले की हिफ़ाज़त करने वाले राजपूत शाही सेवा से अनजान थे, इसलिए वे किले की बुर्ज़ पर इकट्ठे हो गए और भयंकर लड़ाई जारी रखी”

“अकबर द्वारा जयमल राठौड़ को लालच देना” :- अकबर ने राजा टोडरमल को दुर्ग में जयमल राठौड़ के पास सन्धि प्रस्ताव लेकर भेजा। सन्धि के अनुसार यदि जयमल राठौड़ दुर्ग अकबर के हवाले कर दे, तो उन्हें फिर से मेड़ता दे दिया जाएगा। जयमल राठौड़ ने राजा टोडरमल के जरिए कहलवाया कि “मैं महाराणा उदयसिंह के आदेशों का पालन करुंगा”। “है गढ़ म्हारौ म्है धणी, असुर फिर किम आण। कुंच्यां जे चित्रकोट री, दिधी मोहिं दीवाण।। जयमल लिखे जबाब यूं सुणिए अकबर शाह। आण फिरै गढ़ उपरा, पड्यो धड़ पातशाह।।”

“अकबर द्वारा ईसरदास चौहान को लालच देना” :- अकबर अब भी चाहता था कि कूटनीति से दुर्ग जीत लिया जाए। इसलिए उसने चित्तौड़ दुर्ग के प्रमुख संरक्षकों में से एक ईसरदास चौहान को लालच दिया। ईसरदास चौहान ने अकबर के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और बिना अकबर को सलाम किए ही जाने लगे, तब अकबर के सिपहसलारों ने ईसरदास चौहान को रोकना चाहा। ईसरदास चौहान ने अकबर से कहा कि “मैं सही समय पर मुजरा (सलाम) अवश्य करूँगा”

“अकबर द्वारा सुरंगों का निर्माण करवाना” :- अकबर ने सुरंग खुदवाने का निश्चय किया। अकबर का उद्देश्य था कि सुरंग खोदकर उसमें बारूद भरकर किले की दीवारें उड़ा दी जाएं। अंग्रेज इतिहासकार फ्रेडरिक लिखता है :- “अकबर ने शपथ ली कि चित्तौड़ दुर्ग जब जीत लिया जावेगा, तो वह पैदल अजमेर मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत करेगा”।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

ग्रंथ राणा रासौ में लिखा है :- “जलालुद्दीन अकबर के सैनिक थक गए। युद्ध में लड़ने की लगन नहीं रही। निर्भीकता का स्थान चिंता ने ले लिया। तब बादशाह पश्चिम की तरफ मुंह करके तसवी (माला) फेरते हुए अपने खुदा से कहने लगा कि युद्ध में हिंदुओं से लड़ते समय आप मेरी लाज रखना। फिर बादशाह ने दुर्ग की ओर देखा और सुरंग खुदवाने का निश्चय किया। ज्यों-ज्यों सुरंग दूर तक खोदी जाती थी और धूल निकाली जाती थी, त्यों-त्यों बादशाह प्रसन्न होता जाता था”

अकबर का दरबारी लेखक व इस युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी निजामुद्दीन अहमद लिखता है :- “जब घेराबंदी बहुत लम्बी खींच गई और कोई नतीजा नहीं निकला, तो बादशाह ने साबात बनवाने और सुरंगें खुदवाने का हुक्म दिया”। अकबर के आदेश से सुरंग का कार्य करने के लिए आसपास के क्षेत्रों से 5000 मज़दूर, लोहार आदि मंगवाए गए।

सुरंग व साबात :- सुरंग ज़मीन के अंदर और साबात ज़मीन के ऊपर बनाई जाती थी। साबात दो तरफ दीवारें बनाकर उसके ऊपर पत्थर ढंककर बनाई जाती थी। इस साबात के अंदर रहकर सुरंग खोदने का कार्य किया जाता था। उद्देश्य यही था कि किले से राजपूतों द्वारा चलाये गए तीर आदि साबात के टकरा जाए और सुरंग बनाने के काम में अड़चन न आए। साबात बनवाने के लिए मुगलों ने चित्तौड़गढ़ के गांवों से गाय-भैंसों को मारकर उनकी खाल उतारी और यह खाल साबात के ऊपर ढंक दी गई।

साबात बनवाने वाले कारीगरों की सुरक्षा के लिए मुगल सिपाहियों को जगह-जगह तैनात कर दिया गया। मेवाड़ के राजपूतों ने कभी ऐसी विशाल साबात नहीं देखी थी। यह साबात इतनी चौड़ी थी कि इसमें से 2 हाथी और 2 घोड़े एक साथ निकल सकते थे। इस साबात की ऊंचाई इतनी थी कि हाथी पर सवार सैनिक अपना भाला घुमाते हुए निकल सकता था। इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद भी राजपूतों की बन्दूकों व तीरों से प्रतिदिन लगभग 200 मुगल सिपाही व मज़दूर मारे जाते थे। मरने वालों की लाशों को ईंट-पत्थरों की जगह काम में लिया जाता था। इसलिए डर के मारे मजदूरों ने काम छोड़ना चाहा, तो अकबर ने उनकी मज़दूरी की रकम बढ़ा दी।

मज़दूरों को देने के लिए चांदी के सिक्कों के ढेर लगा दिए गए। कई मुगलों और कारीगरों की मौत के बाद आख़िरकार एक साबात चित्तौड़गढ़ किले की दीवार तक पहुंच गई। इस साबात के ऊपर अकबर के बैठने के लिए एक स्थान बनवाया गया। एक सुरंग का काम समाप्त होने के बाद अकबर ने 2 और सुरंगों का निर्माण करवाने का आदेश दिया। ये दोनों सुरंगें चित्तौड़ी बुर्ज़ की तरफ़ बनवाई गई। पहली सुरंग में 120 मन व दूसरी सुरंग में 80 मन बारुद भरवाया गया।

* अगले भाग में मुगल पक्ष के सिपहसलारों के नाम, अकबर द्वारा मोहरी मगरी के निर्माण, सुरंगों में विस्फोट, इस्माइल खां की कुर्बानी, अकबर व फ़ैज़ी की मुलाकात के बारे में लिखा जाएगा

* पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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