23 अक्टूबर, 1567 ई.
“मोर्चाबन्दी”
अबुल फजल लिखता है :- “शाही शिविर के साथ पैमाइश करने वाले हमेशा रहते थे। इन्होंने पैमाइश करके पता लगाया कि किले का घेरा 2 कोस से ज्यादा था और जहां से आम लोग आते जाते थे, वहां से घेरा 5 कोस था”
अकबर का दरबारी लेखक मौलाना अहमद, जो कि इस युद्ध के वक्त मौजूद था, तारिख-इ-अलफी में लिखता है :- “आबाद दुनिया में चित्तौड़ जैसा कोई दूसरा किला नहीं है। जब बादशाह चित्तौड़ पहुंचे, तो पहले उन्होंने किला न घेरकर राणा उदयसिंह को पकड़ने का फैसला किया, पर उसके लिए जोखिम भरी पहाड़ियों और जंगलों में भटकना पड़ता था, इसलिए शहंशाह ने राणा के पीछे खुद न जाना ही मुनासिब समझा”
अकबर घोड़े पर सवार हुआ और बड़ी तसल्ली के साथ किले के चारों तरफ़ चक्कर लगाकर जायज़ा लिया। चित्तौड़गढ़ दुर्ग की विशालता के कारण अकबर को समझ आ गया था कि यह घेराबंदी लंबे समय तक चलेगी।
शुरुआत में केवल 5000 घुड़सवार अकबर के साथ थे। लेकिन धीरे-धीरे फ़ौजी दस्ते हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों से आने लगे। अकबर ने सिपहसलारों को बहुत सोच-समझकर उनके काम के अनुसार अलग-अलग स्थानों पर तैनात कर दिया।
अकबर ने मोर्चाबन्दी का काम बड़ी सावधानी से करवाया। इस मामले में जल्दबाजी दिखाने वाले आलम खां और आदिल खां नामी सिपहसालारों को अकबर ने सज़ा दी, क्योंकि इनकी जल्दबाजी की वजह से कई मुगल राजपूतों के हाथों मारे गए।
आमेर से राजा भारमल कछवाहा ने अपने बेटे राजा भगवानदास को फ़ौज समेत अकबर के पास भेज दिया। देखते ही देखते अकबर के पास 80,000 की फौज जमा हो गई और अकबर ने एक महीने में ही चित्तौड़ दुर्ग को घेर लिया।
80,000 की फौज के अलावा 10-12 हजार नौकर-चाकर भी थे।
अकबर खुद बहुत सी फौज समेत किले के उत्तर की तरफ लाखोटा दरवाजे पर तैनात हुआ। इस दरवाजे के भीतर किले में वीर जयमल राठौड़ तैनात थे।
किले के पूर्वी दरवाजे सूरजपोल पर राजा टोडरमल, कासिम खां वगैरह तैनात हुए। इस दरवाजे के भीतर की तरफ किले में राजराणा सुरतन सिंह झाला, रावत साईंदास चुण्डावत, कुंवर अमरसिंह चुण्डावत आदि तैनात थे।
किले के दक्षिण में चित्तौड़ी बुर्ज पर बाहर की तरफ आसफ खां और वजीर खां तैनात थे। चित्तौड़ी बुर्ज़ के भीतर की तरफ़ राव बल्लू सोलंकी तैनात थे।
किले के भीतर रामपोल, जोड़लापोल, गणेशपोल, हनुमानपोल, भैरवपोल दरवाज़ों पर डोडिया ठाकुर सांडा, चौहान ईसरदास, रावत साहिब खान आदि योद्धा तैनात थे।
मुगल फ़ौज के सिपहसलार आलम खां और आदिल खां का काम किले के चारों तरफ चक्कर लगाकर व्यवस्था व देखरेख करना था।
निज़ामुद्दीन अहमद बख्शी लिखता है :- “किले के चारों तरफ़ फ़ौजी दस्ते तैनात हो गए, जैसे आबाद दुनिया के चारों तरफ़ समंदर हो”
नवम्बर, 1567 ई.
* अकबर ने आगरा से तोपें मंगवाई, लेकिन तोपें आने में देरी मालूम हो रही थी, तो जब तक तोपें आवें, तब तक अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग के बाहर ही एक तोप ढालने का हुक्म दिया
अबुल फजल लिखता है “शहंशाह ने एक ऐसी तोप ढलवाई, जिससे आधे मन का गोला दागा जा सकता था”
“अकबर की रामपुरा विजय”
मेवाड़ के राणा भुवनसिंह के पुत्र चंद्रा के वंशज ‘चंद्रावत’ सिसोदिया कहलाए, जिनकी जागीर रामपुरा थी। रामपुरा के राव दुर्गा सिसोदिया महाराणा उदयसिंह के सामन्त थे।
अकबर ने चित्तौड़ घेरे के पहले माह के अन्त में आसफ खां को रामपुरा भेजा।
रामपुरा के कई सिसोदिया राजपूत तो पहले ही चित्तौड़गढ़ दुर्ग में तैनात थे। आसफ खां के रामपुरा आने की ख़बर सुनकर राव दुर्गा कुछ और राजपूतों को साथ लेकर महाराणा उदयसिंह के पास चले गए।
बचे-खुचे सिसोदिया राजपूतों ने आसफ खां से लड़ते हुए वीरगति पाई। आसफ़ खां ने रामपुरा को लूटकर तहस-नहस कर दिया। रामपुरा में कुछ सिपहसालारों को तैनात करने के बाद आसफ़ खां चित्तौड़गढ़ आ गया।
(बाद में राव दुर्गा सिसोदिया ने बादशाही अधीनता स्वीकार कर कर ली थी)
“हुसैन कुली खां को राजपरिवार की खोज करने भेजना”
अकबर ने महाराणा उदयसिंह की खोज करने के लिए बैरम खान के भांजे हुसैन कुली खां को भेजा। हुसैन कुली खां ने पहले भी कांगड़ा के सैन्य अभियान में भाग लिया था, जिससे उसे पहाड़ी क्षेत्रों में सैन्य संचालन का अनुभव था।
महाराणा उदयसिंह का परिवार तो इन दिनों राजपीपला में था, परंतु स्वयं महाराणा उदयसिंह स्थान बदलते रहे। वे इस दौरान कुंभलगढ़, केलवाड़ा, गोगुन्दा, गिरवा, उभयेश्वर आदि स्थानों पर रहे।
हुसैन कुली खां उदयपुर पहुंचा, उसने उदयपुर में खूब लूटमार की पर महाराणा का कोई पता न चला। हुसैन कुली जहां गया वहां उसने तबाही मचाई। हुसैन कुली ने बहुत सा धन और मेवाड़ के बन्दी बनाए लोगों को अकबर के सामने पेश किया।
अकबर हुसैन कुली की कार्यवाहियों से खुश नहीं हुआ, क्योंकि इस समय अकबर का लक्ष्य चित्तौड़ विजय था, न कि लूट का धन एकत्र करना।
अकबर का उद्देश्य यही था कि यदि महाराणा उदयसिंह को बंदी बना लिया जाए तो बिना लड़े ही उसे विजय मिल जाएगी। लेकिन हुसैन कुली की कार्यवाहियों से निराश होकर अकबर ने अपने एक फ़ौजी दस्ते को चित्तौड़गढ़ पर धावा बोलने का आदेश दिया।
“चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई का पहला प्रयास”
अकबर ने अपनी फ़ौज को चित्तौड़गढ़ पर हमला करने का आदेश दिया। हज़ारों की तादाद में मुगल सैनिकों ने किले की तरफ़ धावा बोला, लेकिन राजपूतों ने तीरों और बंदूकों से कई मुगल सिपाहियों को मार गिराया।
तारीख-इ-अलफी में लिखा है :- “चित्तौड़ की दीवारों पर बड़ी संख्या में राजपूत लोग किले कि हिफाज़त कर रहे थे। किले में बड़ी तादाद में फ़ौजी सामान भी भरा पड़ा था। चित्तौड़ जीतने की बादशाह अकबर की पहली कोशिश के नाकाम होने कि वजह यही थी कि यह किला काफ़ी मज़बूत था और राजपूतों ने किले की हिफ़ाज़त बहुत ही काबिलियत से की थी”
* अगले भाग में दोनों पक्षों द्वारा किए गए संधि के असफल प्रयास व अकबर द्वारा सुरंगों के निर्माण के बारे में लिखा जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
I love to read your blog. So interesting. The way you put it, I feel I am in that era! Meaning its very descriptive.
Very good job.
Author
Thank you… Keep reading…
I need your help to correct my name. Its coming up as an Alla instead of Alka. How do I correct it?
I tried to save it as an Alka
Author
Ohk
बहुत ही शानदार तरीके से मेवाड़ का इतिहास प्रस्तुत करने के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।
Author
आभार हुकम
Very informative
Thank you so much for write such a nice blog
Authontic and true history
बहुत अच्छा
जय महाराणा उदयसिंह जी
Very nice
आदरनीय तनवीर जी,
मेवाड के इतिहास के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराने के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद।
मुझे गर्व है कि मैंने मेवाड़ की पावन धरा पर जन्म लिया हैं।
-योगेश त्रिपाठी
कपासन
जय-सियाराम
Author
उत्साहवर्धन के लिए हृदय से धन्यवाद आपका