मेवाड़ महाराणा उदयसिंह (भाग – 16)

1567 ई.

“महाराणा उदयसिंह द्वारा दुर्ग छोड़ने से पहले की गई तैयारियां”

महाराणा उदयसिंह ने दुर्ग छोड़ने से पहले चित्तौड़गढ़ दुर्ग को काफी मज़बूती प्रदान की थी।

महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़गढ़ छोड़ने से पहले 8000 राजपूत योद्धाओं को दुर्ग की रक्षा ख़ातिर तैनात किया था।

महाराणा उदयसिंह ने 1000 बंगाली पठानों को काफ़ी सोच समझकर जगह-जगह तैनात किया था, क्योंकि ये पठान बंदूक चलाने में माहिर थे। ये पठान बक्सरिया जाति के थे, जिनको अकबर की फ़ौज ने बंगाल से खदेड़ा, तब इन्होंने महाराणा उदयसिंह की शरण ली। महाराणा ने इनको सेना में भर्ती कर लिया था।

इस समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 40 हज़ार नागरिक मौजूद थे। इनके अलावा दुर्ग में कई राजपूतानियाँ व उनके बच्चे, बंगाली पठान और उनके बीवी-बच्चे भी मौजूद थे।

इस तरह दुर्ग में लगभग 55 हज़ार लोग थे, जिनके लिए रसद की व्यवस्था महाराणा उदयसिंह ने पहले ही कर दी थी। इसके अतिरिक्त चित्तौड़गढ़ दुर्ग इतना विशाल है कि यहां खेती भी की जाती थी। दुर्ग में पानी की भी कोई कमी नहीं थी। वर्तमान समय में भी दुर्ग में 22 तालाब हैं, लेकिन ग्रंथों में लिखा है कि आज से 500-700 वर्ष पूर्व दुर्ग में 84 तालाब थे।

महाराणा उदयसिंह ने किले में लड़ने के लिए भारी मात्रा में गोला-बारूद, तीर, पत्थर आदि इकट्ठे करवा रखे थे।

‘फतहनामा-ए-चित्तौड़’ में अकबर के बयान पर लिखा गया है कि :- “राजपूतों ने किले के तहफ्फुज (सुरक्षा) के लिए इतनी ज्यादा तादाद में तोप, बन्दूक, मनजीक, जिराएसेकल, नफत और नाविक जमा कर रखे थे कि अगर लगातार यह जंग चलती रहती, तो यह सामान तीस साल के लिए काफी होता”

महाराणा उदयसिंह

“राजपरिवार द्वारा चित्तौड़गढ़ छोड़ना”

ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि “मेवाड़ के प्रधानमंत्री और अन्य सामंत महाराणा उदयसिंह के पास गए और उनसे राजपरिवार सहित चित्तौड़गढ़ छोड़ने की बात कही, तो महाराणा ने क्रोधित होकर तलवार हाथ में ली और उनसे कहा कि ‘मेरा नाम उदयसिंह है, जिसे सुनकर रुद्र (भगवान शिव का एक रूप) भी प्रसन्न हो जाते हैं। मैं शाही सैन्य को नष्ट करता हुआ अकबर को कुचल दूंगा। मैं मुगलों का संहार करके युद्धभूमि को हवन कुंड बना दूंगा। मैं प्रातःकाल को ही युद्ध के लिए प्रस्थान करूँगा और महाभारत के अर्जुन की तरह ख्याति अर्जित करूँगा”

ग्रंथ वीरविनोद के अनुसार महाराणा उदयसिंह ने सामंतों से कहा कि “रनिवास (सभी रानियां, पुत्रियां आदि) और सभी कुँवर पहाड़ों में चले जाएं और हम यहीं रुककर आप सबके साथ रहकर लड़ाई लड़ेंगे”

तब महाराजकुमार प्रतापसिंह ने दरबार में एक प्रस्ताव रखा कि “हुजूर (महाराणा) अगर जीवित रहे तो पहाड़ी लड़ाई जरुर लड़ेंगे, पर हम जवान लोगों को किले की रक्षा खातिर यहीं रहने दिया जावे”

कुँवर प्रताप की बात सुनकर सामंतों ने महाराणा से कहा कि “आप रनिवास और सभी कुंवरों समेत पहाड़ों की तरफ प्रस्थान करें। हम जब ये लड़ाई लड़कर मारे जावेंगे, उसके बाद भी आपको आराम करने का मौका नहीं मिलेगा। आप जीवित रहे, तो हमें तसल्ली रहेगी कि आप हमारी मौत का बदला लेकर अपना राज्य मुगलों से वापिस लेंगे”

महाराणा उदयसिंह ने अपने सामन्तों की बात मानते हुए समस्त राजपरिवार व राजकोष के साथ दुर्ग छोड़ने का इरादा किया व दुर्ग की कमान रावत पत्ता चुंडावत और मेड़ता के जयमल राठौड़ के हाथों में सौंपी।

सभी सामंतों ने मिलकर तय करके महाराणा व राजपरिवार की सुरक्षा की जिम्मेदारी कानोड़ के रावत नेतसिंह सारंगदेवोत को सौंपी।

रावत साईंदास चुंडावत के छोटे भाई रावत खेंगार को भी राजपरिवार के साथ भेजा गया।

जब महाराणा उदयसिंह राजपरिवार सहित किले से बाहर निकले, तब मुगलों की एक फ़ौजी टुकड़ी से लड़ाई हुई। इस लड़ाई में वांकड़ा नामक योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए।

(महाराणा उदयसिंह द्वारा चित्तौड़ छोड़ने को कुछ इतिहासकारों ने कायरता कहा है तो कुछ ने इसे महाराणा की दूरदर्शिता कहा है)

इतिहासकार मुंशी देवीप्रसाद लिखते हैं :- “महाराणा उदयसिंह का निर्णय उचित था, क्योंकि केवल चित्तौड़गढ़ में बैठकर लड़ने से बेहतर था कि मेवाड़ के अन्य दुर्गों को सुदृढ़ किया जाए। क्योंकि जब कोई किला किसी बड़ी सेना द्वारा घेर लिया जाता है, तो मारे जाने या अधीनता स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रहता”

प्रोफेसर रामचंद्र तिवारी लिखते हैं :- “चित्तौड़ छोड़ना महाराणा उदयसिंह के साहस और दूरदर्शिता का प्रमाण है। यह एक हृदयहीन आवश्यकता थी। खानवा और चित्तौड़ के दूसरे शाके की क्षतिपूर्ति के लिए यह जरूरी था”

महाराणा ने चित्तौड़ छोड़कर अपना जीवन आराम से न बिताकर मेवाड़ को और अधिक मज़बूत करने में बिताया। अपनी सेना को छापामार लड़ाइयां लड़ने के लिए प्रेरित किया। इसलिए वास्तव में चित्तौड़ छोड़ना महाराणा उदयसिंह की दूरदर्शिता ही थी।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

“महाराणा उदयसिंह का राजपीपला पहुंचना”

महाराणा उदयसिंह राजपरिवार सहित उदयपुर पहुंचे व उदयपुर से कुम्भलगढ़ पहुंचे। फिर कुछ समय कुंभलगढ़ में ठहरकर गुजरात की ओर रेवा कांठा पर राजपीपला पहुंचे।

यहां के राजा भैरवसिंह ने उनकी बड़ी खातिरदारी की। मेवाड़ का राजपरिवार यहां 4 माह तक रहा।

* अगले भाग में चित्तौड़ के किले पर की गई मोर्चाबंदी, अकबर की रामपुरा विजय, अकबर द्वारा हुसैन कुली खां को महाराणा उदयसिंह के पीछे भेजने, चित्तौड़गढ़ पर अकबर के प्रथम आक्रमण की असफलता के बारे में लिखा जाएगा

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

5 Comments

  1. हार्दिक शर्मा
    December 19, 2020 / 2:15 pm

    महाराणा उदयसिंह जी द्वारा चित्तौड़गढ़ मे काफी अच्छी और समझदारी से तैयारियां करवायी
    उदय सिंह जी ने दुर्ग छोड़ कर अच्छा किया

    जय महाराणा उदयसिंह जी
    जय मेवाड़ के सैनिक (नमन सभी को)

    बहुत सुन्दर वर्णन

  2. उदय सिंह जी के वीर पुरुष थे क्योंकि वह हमारी मां पन्नाधाय का दूध पिया था और हमें गर्व है कि मैं मां पन्नाधाय का वंशज हूं

  3. Dr CP Singh
    December 20, 2020 / 5:11 am

    Proud to be mewari
    Because of sacrifice of our brave Kings
    We are enjoying our life today
    Jai mewar
    Cpsingh UNCHA. Chittore

  4. Mool singh sankhala
    December 20, 2020 / 3:55 pm

    जय मैवाड़
    जय राजपूताना

  5. Parveen
    December 21, 2020 / 4:39 am

    महाराणा उदय सिंह जी ने चितौड़ छोड़ कर अलग अलग जगह जाकर मेवाड़ के दूसरे दुर्ग और किलो को सुदृढ़ किया , आदिवासियों और ग्रामीणों से मिलकर उनमें मेवाड़ के प्रति विश्वास उत्पन्न किया ,जिसका निसंदेह फायदा आने वाली पीढ़ियों को हुआ , उन्होंने कई पुराने दुर्गों और सुरंगों की मरम्मत करवाई
    और इतिहास में अपना नाम हमेशा के लिए अमर कर दिया

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