“चित्तौड़गढ़ दुर्ग में महाराणा उदयसिंह का निवास स्थान”
महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग में पहले तो महाराणा कुम्भा के महलों में रहना शुरु किया और फिर किले के उत्तरी छोर पर बने महलों में रहे, जो अब रतनसिंह के महलों के नाम से प्रसिद्ध हैं
1542 ई.
“अकबर का जन्म”
राजा वीरसाल के गढ़ अमरकोट में मुगल बादशाह हुमायूं की बेगम हमीदा बानो ने अपने बेटे जलाल को जन्म दिया, जो आगे जाकर ‘अकबर’ के नाम से मशहूर हुआ
1543 ई.
“शेरशाह सूरी की रणथंभौर पर चढ़ाई”
अफगान बादशाह शेरशाह सूरी ने रणथम्भौर दुर्ग पर चढाई की
रणथम्भौर दुर्ग के किलेदार भारमल कावड़िया (दानवीर भामाशाह के पिता) ने शेरशाह सूरी को धन वगैरह देकर सुलह कर ली, जिससे किला बर्बाद नहीं हुआ। बिना खून खराबे से शेरशाह ने इस गढ़ को जीत लिया।
इस वक्त ये किला महाराणा उदयसिंह के अधीन था
(शेरशाह का अधिकार रणथंभौर पर करीब 10 वर्षों तक रहा)
1544 ई.
“गिरीसुमेल का युद्ध”
ये युद्ध अफगान बादशाह शेरशाह सूरी और मारवाड़ के राव मालदेव के बीच हुआ। मारवाड़ की पराजय हुई।
इस लड़ाई में मेवाड़ की महारानी जयवन्ता बाई के पिता अखैराज सोनगरा चौहान मारवाड़ की ओर से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए
(कुछ इतिहासकारों ने 1572 ई. में महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के समय अखैराज सोनगरा चौहान के वहां उपस्थित होने का वर्णन किया है, जो उचित नहीं है। उस समय वहां अखैराज सोनगरा के पुत्र मानसिंह सोनगरा उपस्थित थे।)
1544 ई.
“शेरशाह सूरी की चित्तौड़ पर चढाई”
अफगानिस्तान के पूर्वी हिस्से से आया हुआ इब्राहिम सूर दिल्ली के लोदियों की सेना में भर्ती हुआ था। इब्राहिम सूर का बेटा हसन हुआ, जिसने हिसार पर फ़तह हासिल कर ली। हसन का बेटा फरीद हुआ, जिसने बचपन में एक शेर का शिकार किया था, जिससे उसका नाम शेरखान पड़ा। यही शेरखान बाद में शेरशाह सूरी के नाम से मशहूर हुआ।
शेरशाह सूरी ने हुमायूं को 2 बार परास्त किया और दिल्ली का बादशाह बना। फिर मालवा, मुल्तान आदि क्षेत्र जीतने के बाद 1544 ई. में शेरशाह ने मारवाड़ के राव मालदेव राठौड़ को पराजित किया।
जर्जर मेवाड़ को सुधारे हुए महाराणा उदयसिंह को 4 वर्ष ही हुए थे, कि समाचार मिला कि अफगान बादशाह शेरशाह सूरी मेवाड़ पर चढ़ाई के लिए कूच कर चुका है।
बरसात का मौसम था। शेरशाह सूरी फौज समेत जहाजपुर पहुंचा। जहाजपुर पर शेरशाह का कब्ज़ा हो गया। शेरशाह ने जहाजपुर दुर्ग की किलेबंदी करवाई। शेरशाह के मेवाड़ में कदम रखते ही महाराणा उदयसिंह ने फौजी टुकड़ियां भेजी और छुटपुट लड़ाइयां हुईं, जिनका कोई परिणाम नहीं निकला।
महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग के वे भाग पुनः बनवाना शुरू कर दिया, जो बहादुरशाह के हमले में तोड़ दिए गए थे। इस तरह महाराणा ने दुर्ग को मज़बूती प्रदान की।
शेरशाह सूरी ने बड़ी मुश्किल से मारवाड़ की फ़ौज को परास्त किया था, इसलिए वह सीधे तौर पर मेवाड़ से युद्ध करने के लिए राज़ी नहीं था।
दूसरी तरफ महाराणा उदयसिंह भी इस समय युद्ध नहीं चाहते थे, क्योंकि मेवाड़ की स्थिति इस समय इतनी सुदृढ़ नहीं थी कि शेरशाह जैसे शत्रु का सामना कर सके। महाराणा उदयसिंह शेरशाह की मनःस्थिति भी समझ गए थे।
(इस समय शेरशाह सूरी के साथ मेड़ता के वीरमदेव व बीकानेर के कल्याणमल भी थे, जो मेवाड़ के हितैषी थे। सम्भव है कि इन्होंने ही शेरशाह को सलाह-मशवरे देकर मेवाड़ को सीधी लड़ाई से बचा लिया हो)
महाराणा उदयसिंह ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए जहांजपुर में शेरशाह सूरी के पास चित्तौड़ दुर्ग की चाबियां भिजवा दीं
शेरशाह सूरी ने 3000 बन्दूकचियों समेत नीचे लिखे सिपहसालारों को चित्तौड़ दुर्ग में तैनात किया :-
* सेनापति शम्स खां (खवास खां का भाई)
* मियां अहमद सरवानी
* हुसैन खां खिलजी
इस तरह महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के राणा तो थे, पर उनके अधिकार सीमित थे
शेरशाह सूरी के सिपहसालारों ने चित्तौड़ दुर्ग की तलहटी में एक मस्जिद बनवाई, जो अब तक किले में मौजूद है
इसी दौरान हुसैन खां तरतदार सिन्ध से बंगाल जाते वक्त चित्तौड़ में ठहरा था
22 मई, 1545 ई.
“शेरशाह सूरी की मृत्यु”
संयोग से इस वर्ष कालिंजर दुर्ग जीतने के मकसद से हमला करते वक्त बारूद फटने से शेरशाह सूरी मारा गया
शेरशाह सूरी की मौत का फायदा मेवाड़ और मारवाड़ दोनों ही रियासतों ने उठाना शुरू कर दिया
1546 ई.
“मीराबाई जी का देहांत”
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महाराणा उदयसिंह ने भक्त शिरोमणि मीराबाई को चित्तौड़ बुलाने के लिए ब्राह्मणों को भेजा, पर मीराबाई सदा-सदा के लिए अपने कान्हा में विलीन हो गईं
1546 ई.
“शम्स खां की पराजय”
चित्तौड़ में तैनात अफगान सेनापति शम्स खां अपने 3000 बन्दूकचियों के साथ चित्तौड़गढ़ की तलहटी में तैनात था
महाराणा उदयसिंह ने शम्स खां को पराजित कर अफगानों को चित्तौड़ से खदेड़ दिया
“महाराणा उदयसिंह की फौज”
महाराणा उदयसिंह की फ़ौज में 19,000 सैनिक व 300-400 हाथी थे।
ऐसा नहीं था कि ये समस्त फ़ौज महाराणा उदयसिंह के साथ ही रहती थी। ये फ़ौज मेवाड़ के अलग-अलग दुर्गों में तैनात की जाती थी व शेष फ़ौज महाराणा के साथ रहती थी।
महाराणा उदयसिंह के राज्याभिषेक से पहले मेवाड़ को अपार क्षति पहुंची थी, फिर भी महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ को मज़बूती प्रदान की व इतनी बड़ी फ़ौज खड़ी करने में सफलता प्राप्त की।
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* अगले भाग में महाराणा उदयसिंह द्वारा बूंदी के राव सुल्तान हाड़ा को पद से बर्खास्त करने व अन्य घटनाओं के बारे में लिखा जाएगा
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
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Good history
आपको यहाँ शेरशाह ने मारवाड़ के सेनापतियों और मालदेव राठौड़ के बीच कैसे अविश्वास पैदा किया जिससे मालदेव वापस लौट गये लेकिन वीर सेनापति अपनी मौत तक लड़े
और शेरशाह संयोग से नहीं मरा उसे कालिंजर की राजकुमारी दुर्गावती ने उसी के बारूद में अग्नि बाण चलाकर भस्म किया था जो आगे गोंडवाना की रानी बनी और अकबर के सेनापति आसफ खां के विरूद्ध युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुईं ऐसा आचार्य रामरंग चतुरंग ने प्रमाण सहित लिखा है
Author
Hkm
जब सीरीज मेवाड़ के इतिहास की है, तो उसमें मारवाड़ व गोंडवाना का इतिहास वर्णन उचित नहीं है। केवल वही बातें लिखी हैं जो मेवाड़ से किसी न किसी तरह संबंधित रही हैं।
गिरिसुमेल का विस्तृत वर्णन भविष्य में मारवाड़ के इतिहास में लिखा जाएगा