वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की रानी शाहमती/सेमता बाई हाडा, जो कि बूंदी के राव सुरतन/सुल्तान हाडा की पुत्री थीं, उन्होंने कुंवर पूरणमल को जन्म दिया। कुँवर पूरणमल महाराणा प्रताप के 11वें पुत्र थे।
कुँवर पूरणमल को मंगरोप, गुरलां, गाडरमाला, सींगोली की जागीर दी गई। इनके वंशज पुरावत कहलाते हैं और इनकी उपाधि महाराज (बाबा) है। महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में पूरणमल जी द्वारिका यात्रा पर गए।
इसी दौरान जूनागढ़ के मुस्लिम सूबेदार ने लूनावाडे के सौलंकी राजा पर हमला किया। रास्ते में पूरणमल जी को पता चला तो उन्होंने मुस्लिम सूबेदार को पराजित कर लूनावाडे के राजा की मदद की।
सौलंकी राजा ने खुश होकर पूरणमल जी के बेटे सबलसिंह जी को अपने यहीं रख लिया और मलिकपुर, आडेर आदि जागीरें दीं। पूरणमल जी उदयपुर पहुंचे, तो महाराणा अमरसिंह ने उनको मंगरोप की जागीर दी।
पूरणमल जी ने मंगरोप में जंगल साफ करवाकर गांव बसाया। पूरणमल जी के ज्येष्ठ पुत्र नाथसिंह उनके उत्तराधिकारी हुए। नाथसिंह के 2 पुत्र हुए :- महेशदास व मोहकमसिंह। महेशदास मंगरोप के स्वामी हुए।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने महाराज महेशदास को अजमेर की तरफ मुगल थाने पर हमला करने भेजा। महेशदास ने अजमेर में नंदराय की तरफ मुगल थाने पर हमला कर विजय प्राप्त की।
कुछ समय बाद मेवाड़ में कुछ भीलों ने बगावत कर दी। महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने महेशदास को इस बगावत को कुचलने भेजा। महेशदास ने नठारा और भोराई की पाल पर चढ़ाई कर बागी भीलों का दमन किया।
लेकिन महेशदास भी गले में तीर लगने के कारण वीरगति को प्राप्त हुए। महेशदास के वंशज महेशदासोत पुरावत कहलाए। मंगरोप के अलावा आठूंण का ठिकाना भी महेशदासोत पुरावतों का ही है।
महेशदास के भाई मोहकमसिंह को मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह द्वितीय (शासनकाल 1698 से 1710 ई.) ने अर्जने की जागीर दी। मोहकमसिंह के वंशज मोहकमसिंहोत पुरावत कहलाए। गुरला, गाडरमाला, सिंगोली व सूरावास ठिकाने मोहकमसिंहोत पुरावतों के हैं।
महेशदास के उत्तराधिकारी उनके पुत्र जसवंतसिंह हुए। महाराणा अमरसिंह द्वितीय के शासनकाल में मेवाड़ में चुंडावत और राठौड़ राजपूतों के बीच फसाद हुआ।
राजसिंह राठौड़ ने मेवाड़ के कुछ चुण्डावत राजपूतों को मारकर पुर के समीप अधरशिला नाम की गुफा में डाल दिए और वे आमेट के रावत दूलहसिंह के 4 भाइयों को पकड़ कर ले गए।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने क्रोधित होकर मंगरोप के महाराज जसवंतसिंह और देवगढ़ के रावत द्वारिकादास को पुर-माण्डल पर आक्रमण करने भेजा।
रावत द्वारिकादास बागोर के निकट लसवा गांव में ठहर गए, जिससे तय समय पर महाराज जसवंतसिंह की सेना के साथ शामिल नहीं हो सके।
महाराज जसवंतसिंह पुरावत अपने भाइयों प्रेमसिंह व बख्तसिंह के साथ पुर के गढ़ में जा घुसे। राजसिंह राठौड़ ज्यादा देर मुकाबला नहीं कर सके और गढ़ छोड़कर माण्डल में छिप गए।
इस लड़ाई में विजय सिसोदियों को मिली। इन लड़ाइयों में महाराज जसवंतसिंह की तरफ से लगभग 500 राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। महाराज जसवंत सिंह पुरावत के छोटे भाई प्रेमसिंह पुरावत भी वीरगति को प्राप्त हुए।
महाराज जसवंत सिंह की इस सेवा के उपलक्ष्य में महाराणा अमरसिंह द्वितीय ने उनको आठूंण गांव की जागीर दी। आठूंण की जागीरी महाराज जसवंत सिंह के पुत्र चतरसिंह के पास रही। महाराज जसवंत सिंह के उत्तराधिकारी महाराज रतनसिंह पुरावत हुए।
1748 ई. – खारी नदी के युद्ध में महाराज (बाबा) रतनसिंह की वीरता :- महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने कोटा के महाराव दुर्जनसाल हाड़ा व मराठा खंडेराव को फ़ौज समेत उदयपुर बुलाया।
मेवाड़, हाड़ौती व मराठों की मिली जुली फौज ने उदयपुर से कूच किया और खारी नदी के पास पड़ाव डाला। जयपुर की सेना ने नदी की दूसरी तरफ़ पड़ाव डाला।
पहले दिन की लड़ाई में मेवाड़ की तरफ से मंगरोप के महाराज रतनसिंह व आरजे के रणसिंह ने जयपुर की हरावल को पीछे धकेल दिया। पहले दिन की लड़ाई में मेवाड़ वालों का पलड़ा भारी रहा।
रात होने की वजह से लड़ाई रोक दी गई और सभी अपने-अपने खेमे में लौट गए। मेवाड़ के इन वीरों की बहादुरी देखकर बाद में महाराणा द्वारा महाराज रतनसिंह को दादूथल और दांदियावास की जागीरें दी गई।
महाराज रतनसिंह के उत्तराधिकारी महाराज भवानीसिंह हुए। महाराज भवानीसिंह के उत्तराधिकारी महाराज बिशनसिंह हुए। 13 अप्रैल, 1769 ई. को उज्जैन में क्षिप्रा नदी के किनारे महाराणा अरिसिंह व महादजी (माधवराव) सिंधिया के बीच युद्ध हुआ।
इस युद्ध के समय मंगरोप के महाराज (बाबा) बिशनसिंह बालक थे, इसलिए उन्होंने मंगरोप से 500 राजपूत वीरों को इस युद्ध में भेज दिया। इस युद्ध में मंगरोप की तरफ से कई वीरों ने वीरगति पाई।
मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह के शासनकाल में मराठों की लूटखसोट बहुत अधिक बढ़ गई। महाराणा भीमसिंह ने पुर से मराठों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व मंगरोप के महाराज बिशनसिंह पुरावत को सौंपा।
महाराज बिशनसिंह अपने भाई पद्मसिंह (आर्ज्या के स्वामी) व मुहब्बतसिंह (गाडरमाला के स्वामी) साथ ससैन्य रवाना हुए और पुर पर चढ़ाई कर दी। मराठों से हुई लड़ाई में कई पुरावत राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए, परन्तु फिर भी पुर से मराठों को खदेड़ने में सफलता प्राप्त की।
महाराज बिशनसिंह पुरावत के उत्तराधिकारी क्रमशः महाराज बिरदसिंह, महाराज मर्यादसिंह, महाराज गिरवरसिंह हुए।
आर्ज्या का गढ़ मेवाड़ के महाराणा प्रताप के पुत्र पूरणमल के वंशज बख्तसिंह पुरावत ने बनवाया था। इसके बाद से यह गढ़ पुरावतों का ही रहा, लेकिन महाराणा जवानसिंह ने आर्ज्या की जागीर चावड़ा राजपूतों को दे दी।
महाराणा स्वरूपसिंह के शासनकाल में आर्ज्या के वास्तविक उत्तराधिकारी चन्दनसिंह पुरावत ने आर्ज्या के गढ़ से चावड़ा राजपूतों के आदमियों को निकाल दिया और वहां अपना अधिकार कर लिया।
फिर महाराणा स्वरूपसिंह ने 1852 ई. में एक फ़ौज आर्ज्या पर भेजी। इस फ़ौज में मंगरोप के महाराज (बाबा) गिरवरसिंह पुरावत भी शामिल थे। मंगरोप के महाराज को इसलिए भेजा गया था, ताकि वे चन्दनसिंह पुरावत को समझा सकें।
जब बातचीत से समस्या हल नहीं हुई, तब लड़ाई हुई और चन्दनसिंह मारे गए। इस समय चन्दनसिंह पुरावत की एक बहन आर्ज्या के गढ़ में ही थी, जिनको सम्मान सहित मंगरोप के बाबा गिरवरसिंह पुरावत के सुपुर्द कर दिया गया।
25 दिसम्बर, 1878 ई. को महाराणा सज्जनसिंह अपने सरदारों, सैनिकों आदि के साथ कविराजा श्यामलदास के गांव ढोकलिया गए थे, जहां कविराजा ने सभी को दावत दी। इस समय मंगरोप के महाराज गिरवर सिंह पुरावत भी महाराणा के साथ थे।
23 नवम्बर, 1881 ई. को मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह ने गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन के आगमन पर चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक भव्य दरबार का आयोजन किया था। इस दरबार में मंगरोप के महाराज गिरवर सिंह भी शामिल हुए थे।
महाराज गिरवर सिंह के उत्तराधिकारी क्रमशः महाराज रणजीतसिंह, महाराज ईसरीसिंह, महाराज भूपालसिंह व महाराज नाहरसिंह पुरावत हुए। महाराज नाहरसिंह का विवाह रानी सरदार कंवर झाला से हुआ, जो कि ताणा के राजराणा रतनसिंह की पुत्री थीं।
महाराज नाहरसिंह के उत्तराधिकारी क्रमशः महाराज भवानी सिंह, महाराज यज्ञ नारायण सिंह, महाराज प्रद्युम्न सिंह हुए। महाराज प्रद्युम्न सिंह मंगरोप के 17वें महाराज हैं।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)
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