मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास में मेहता रामसिंह के घराने का योगदान

मेहता रामसिंह का घराना :- इस घराने के पूर्वज राजपूत थे, परन्तु बाद में जैन धर्म अपना लिया। इस घराने का शुरुआती इतिहास अंधकार में है। बताया जाता है कि इनके पूर्वज 14वीं सदी में मेवाड़ आ गए थे।

19वीं सदी में इस वंश में मेहता ऋषभदास हुए, जिनके पुत्र मेहता रामसिंह हुए। रामसिंह बुद्धिमान, नीतिकुशल व स्वामिभक्त थे। मेहता रामसिंह के कार्यों से प्रभावित होकर 25 जून, 1819 ई. को महाराणा भीमसिंह ने उनको बदनोर क्षेत्र में स्थित अरणा गांव भेंट किया।

1824 ई. में मेवाड़ के राजकाज के कार्यों में बड़ी बाधा आई, जिस वजह से पोलिटिकल एजेंट कप्तान कॉब ने मेवाड़ के प्रधान शिवदयाल गलूंड्या को पद से हटाकर मेहता रामसिंह को प्रधान बनाया।

मेहता रामसिंह ने बड़ी सूझबूझ से काम करते हुए मेवाड़ का काफी कर्ज़ खत्म करवा दिया, जिससे आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ। महाराणा भीमसिंह ने प्रसन्न होकर मेहता रामसिंह को 1826 ई. में जयनगर, ककरोल, दौलतपुरा व बलदरखा नामक 4 गाँव दिए।

महाराणा जवानसिंह के शासनकाल में राज्य का ख़र्च बढ़ गया, जिसकी जांच के लिए एक समिति गठित की गई। इस समिति ने मेहता रामसिंह को गलत तरीके से भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए फंसा दिया।

महाराणा ने मेहता रामसिंह की जगह मेहता शेरसिंह को प्रधान बनाया, परन्तु कुछ समय बाद सही बात सामने आने पर पुनः मेहता रामसिंह को प्रधान घोषित किया।

मेहता रामसिंह ने पुनः अपनी योग्यता से कर्ज काफी कम करा दिया, जिसके बाद महाराणा ने उनको सिरोपाव भेंट करके सम्मानित किया। कई ईर्ष्यालु लोगों ने मेहता रामसिंह के विरुद्ध महाराणा के कान भी भरे।

पोलिटिकल एजेंट कप्तान कॉब का मेहता रामसिंह पर बड़ा विश्वास था। उक्त पोलिटिकल एजेंट के जाने के बाद मेहता रामसिंह ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

जब महाराणा सरदारसिंह गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने मेहता शेरसिंह को कैद करके पुनः मेहता रामसिंह को प्रधान घोषित किया। महाराणा सरदारसिंह मेहता रामसिंह पर बड़ा विश्वास करते थे।

एक बार महाराणा सरदारसिंह ने गोगुन्दा के लालसिंह झाला को मारने का आदेश दे दिया था, परन्तु मेहता रामसिंह ने बीच में पड़कर लालसिंह को क्षमा करवा दिया। 1841 ई. में मेवाड़ के भीलों को एकत्र करके उनकी एक सेना बनाई गई, जिसे मेवाड़ भील कोर नाम दिया गया।

इस सेना के निर्माण में मेहता रामसिंह का भी विशेष योगदान रहा। इन्हीं दिनों मेहता रामसिंह के ज्येष्ठ पुत्र बख्तावर सिंह बीमार हुए, तो महाराणा सरदारसिंह ने उनकी हवेली पर जाकर हालचाल पूछा।

6 मार्च, 1844 ई. को महाराणा स्वरूपसिंह मेहता रामसिंह की हवेली पर गए। महाराणा ने उनको ताजीम का अधिकार दिया व ‘काकाजी’ की उपाधि देकर सम्मानित किया।

महाराणा स्वरूपसिंह ने राज्य के जमा खर्च की जांच करने के लिए मेहता शेरसिंह को नियुक्त किया, जिसके बाद मेहता रामसिंह पर गबन का आरोप लगाकर जुर्माने के तौर पर 10 लाख रुपए जमा करने का आदेश दिया गया।

बाद में यह अफवाह उड़ी कि कुछ लोग महाराणा को ज़हर देकर मारना चाहते हैं, इसमें मेहता रामसिंह का नाम भी सामने आया, हालांकि इसमें सत्यता नहीं थी। मेहता रामसिंह जान बचाकर ब्यावर चले गए।

उनकी जायदाद जब्त कर ली गई व परिवार को मेवाड़ से बेदखल कर दिया गया। जब बीकानेर के महाराजा सरदारसिंह राठौड़ ने मेहता रामसिंह को कहलवाया कि आप बीकानेर राज्य की सेवा में आ जाइए, तब रामसिंह ने उक्त महाराजा को कहलवाया कि

“महाराणा साहब को मेरी सेवाओं का पूरा ध्यान है। वे मेरे शत्रुओं द्वारा झूठी खबर फैलाने से इस समय मुझसे अप्रसन्न हैं, परन्तु कभी न कभी उनकी अप्रसन्नता जरूर दूर होगी। उस समय वे मुझे अपनी सेवा में पुनः बुला लेंगे।”

इस बात का पता महाराणा स्वरूपसिंह को चला, तो उन्होंने मेहता रामसिंह को उदयपुर बुलाना चाहा, परन्तु उससे पहले ही रामसिंह का देहांत हो गया। मेहता रामसिंह के 5 पुत्र हुए :- बख्तावरसिंह, गोविंदसिंह, जालिमसिंह, इंद्रसिंह व फतहसिंह।

महाराणा स्वरूपसिंह

इंद्रसिंह बीकानेर के महाराजा की सेवा में चले गए। 1861 ई. में महाराणा शम्भूसिंह ने मेहता रामसिंह के पुत्र जालिमसिंह को अपनी सेवा में रख लिया। जालिमसिंह मेहता ने मेवाड़ के राशमी क्षेत्र में जालिमपुरा नामक गाँव बसाया।

1868 ई. में उनको छोटी सादड़ी का हाकिम बनाया गया। 3 वर्ष तक इस पद पर रहते हुए जालिमसिंह ने कभी तनख्वाह नहीं ली। मेवाड़ के प्रधान कोठारी केसरीसिंह ने आय-व्यय के हिसाब की जांच करते समय जालिमसिंह के क्षेत्र की भी जांच की, तो जालिमसिंह के कार्यों से बड़े खुश हुए।

केसरीसिंह ने जालिमसिंह मेहता को 3 वर्षों का वेतन दिया और साथ ही भोजन खर्च हेतु प्रतिदिन 3 रुपए दिए जाने की भी व्यवस्था कर दी। 1871 ई. में महाराणा शम्भूसिंह ने मेहता जालिमसिंह को ‘हिसाब दफ्तर’ का हाकिम बना दिया।

महाराणा ने जालिमसिंह के निर्वाह हेतु एक हजार की आमदनी वाला बरोडा गांव व हवेली के पीछे स्थित नौहरा जालिमसिंह को दे दिया। 1874 ई. में मेहता जालिमसिंह को जहाजपुर का हाकिम बनाया गया, परन्तु वे वृद्ध हो चुके थे, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र अक्षयसिंह को भेजा।

1879 ई. में जालिमसिंह का देहांत हो गया। जालिमसिंह के 3 पुत्र हुए :- अक्षयसिंह, केसरीसिंह व उग्रसिंह। मेहता अक्षयसिंह को जहाजपुर का हाकिम नियुक्त किया गया। अक्षयसिंह ने जहाजपुर की आय बढ़ाई और वहां अखयपुरा, केसरपुरा व जीवनपुरा नामक 3 गाँव बसाए।

महाराणा सज्जनसिंह ने प्रसन्न होकर अक्षयसिंह को कुम्भलगढ़ का हाकिम भी बना दिया व साथ ही छोटी सादड़ी और मगरा का प्रबंध भी सौंप दिया। दूरी अधिक होने के कारण अक्षयसिंह ने केवल मगरा जिले का प्रबंध ही अपने पास रखा।

अक्षयसिंह ने मगरा की आबादी बढाई और उन भीलों को जो लूटमार के कार्यों में लिप्त हो गए थे, उन्हें खेती के कार्य में लगाकर आय बढाई। 1880 ई. में अक्षयसिंह को मांडलगढ़ का हाकिम बनाया गया।

1881 ई. में जनगणना के कार्य से नाराज होकर भीलों ने बगावत की और परसाद गांव में अक्षयसिंह को घेर लिया। तब कविराजा श्यामलदास ने वहां जाकर मामला शांत किया।

1883 ई. में अक्षयसिंह के पुत्र जीवनसिंह के विवाह के अवसर पर महाराणा सज्जनसिंह उनकी हवेली पर मेहमान हुए। 1884 ई. में महाराणा फतहसिंह ने अक्षयसिंह को भीलवाड़ा का हाकिम बना दिया।

1899 के प्रसिद्ध छप्पनिया अकाल में अक्षयसिंह ने गरीबों की बड़ी मदद की। 1903 ई. में अक्षयसिंह को भींडर ठिकाने का मुंसरिम नियुक्त किया गया, तब उन्होंने वहां के कर्ज का निपटारा किया। 1905 ई. में उनका देहांत हो गया।

अक्षयसिंह के 2 पुत्र हुए :- जीवनसिंह व जसवंतसिंह। जसवंतसिंह को सहाड़ा का हाकिम बनाया गया व कुछ समय बाद भीलवाड़ा का हाकिम बना दिया गया।

जीवनसिंह भी समय-समय पर सहाड़ा, भीलवाड़ा, जहाजपुर, कुम्भलगढ़, कपासन, चित्तौड़, आसींद, मगरा आदि जगहों के हाकिम रहे। जीवनसिंह से प्रजा काफी प्रसन्न रहती थी। जीवनसिंह का अनुभव 35 वर्षों का रहा।

महाराणा फतहसिंह

जीवनसिंह के 3 पुत्र हुए :- तेजसिंह, मोहनसिंह व चंद्रसिंह। महाराणा फतहसिंह ने 1918 ई. में तेजसिंह को कुम्भलगढ़ व सायरा का हाकिम नियुक्त किया। 1921 ई. में तेजसिंह महाराजकुमार भूपालसिंह के प्राइवेट सेक्रेटरी नियुक्त हुए।

महाराणा भूपालसिंह ने तेजसिंह को सोने के लंगर भेंट किए। मोहनसिंह 1921 ई. में कुम्भलगढ़ व सायरा के हाकिम रहे। फिर उस ज़माने में इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी की परीक्षा पास की और लंदन यूनिवर्सिटी से PHD की डिग्री हासिल की। उस वक्त ऐसी उच्च डिग्री हासिल करने वाले वे राजपूताने के पहले व्यक्ति थे।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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