मारवाड़ नरेश राव टीडा राठौड़ (शासनकाल 1344 ई. से 1357 ई. तक) :- ये राव छाड़ा के पुत्र थे। राव टीडा मारवाड़ के राठौड़ वंश के 8वें शासक थे। 1344 ई. में राव छाड़ा के देहांत के बाद राव टीडा का राज्याभिषेक हुआ। राव टीडा का नाम कहीं-कहीं राव तीडा भी लिखा है।
राव टीडा से संबंधित मारवाड़ की ख्यातों में कुछ घटनाएं ऐसी लिखी हैं, जो बिल्कुल असत्य हैं। उन घटनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन करने की बजाय यहां सीधे ही उन घटनाओं के गलत होने का कारण संक्षिप्त में लिखा जा रहा है।
ख्यातों के अनुसार राव टीडा ने भीनमाल के सोनगरा शासक राव सामंतसिंह को परास्त करके उनकी रानी सुबली से जबरन विवाह किया।
यह घटना बिल्कुल असत्य है, क्योंकि पहली बात तो ये कि राजपूतों में किसी दूसरे राजपूत की स्त्री को इस हद तक सम्मान दिया जाता था कि जो राजपूत शत्रु हो, उसको परास्त करने के बाद उसकी स्त्री को सम्मानपूर्वक उसके पास लौटा दिया जाता था।
दूसरी और मूल बात ये कि उस समय भीनमाल पर सोनगरों का नहीं, बल्कि मुसलमानों का राज था। 1357 ई. में राव टीडा का देहांत हो गया। जोधपुर की ख्यातों में राव टीडा द्वारा सिवाना के युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी से लड़ते हुए वीरगति पाना लिखा है।
यह कथन भी बिल्कुल गलत है, क्योंकि राव टीडा का राज्याभिषेक 1344 ई. में हुआ था और सिवाना की लड़ाई 1308 ई. में हुई थी। विश्वेश्वर नाथ रेउ ने भी राव टीडा को सातल व सोम का भांजा बताते हुए मुसलमानों से लड़ते हुए वीरगति पाना लिखा है, जो कि गलत है।
राव टीडा राठौड़ के पुत्रों का वर्णन :- राव टीडा के 3 पुत्र हुए :- कान्हड़देव, त्रिभुवनसी व सलखा। मारवाड़ की ख्यातों में एक-एक करके इन तीनों भाइयों द्वारा राजगद्दी पर बैठना लिखा है। कहीं-कहीं त्रिभुवनसी को कान्हड़देव का पुत्र होना लिखा गया है।
मुहणौत नैणसी ने राव टीडा की एक रानी का नाम रानी तारादे लिखा है, जिनसे राव सलखा का जन्म हुआ। जब राव टीडा का देहांत हुआ, तो उनके ज्येष्ठ पुत्र राव कान्हड़देव उनके उत्तराधिकारी हुए।
मारवाड़ नरेश राव कान्हड़देव राठौड़ :- मुहणौत नैणसी लिखते हैं कि “राव टीडा और रानी सुबली के पुत्र कान्हडदेव महेवा की गद्दी पर बैठे। कान्हड़देव के भाई सलखा को गुजरात के मुसलमानों ने कैद कर लिया। फिर
दो पुरोहितों ने वीणा बजाकर सुल्तान को खुश किया और बदले में सलखा की रिहाई मांगी। रिहा होने के बाद सलखा महेवा गए, जहां उनको कान्हड़देव ने एक जागीर दे दी। सलखा के 4 पुत्र हुए :- माला (मल्लीनाथ जी),
वीरम, जैतमल व शोभित। 12 वर्ष की आयु में माला कान्हड़देव के पास चले गए। माला कान्हड़देव की बड़ी सेवा करते थे। एक दिन जब राव कान्हडदेव शिकार पर गए, तब माला ने उनका पल्ला पकड़कर राज्य का एक
भाग दिलाने की ज़िद की। राव कान्हड़देव ने माला की ज़िद पूरी करते हुए उन्हें लिखित में राज्य का एक भाग देने की बात स्वीकार कर ली। धीरे-धीरे माला की सेवा से प्रसन्न होकर कुछ वर्षों बाद उन्होंने माला को अपना प्रधान
घोषित कर दिया। माला की बढ़ती ख्याति और राव कान्हड़देव की नज़रों में उसका स्थान बढ़ता हुआ देखकर अन्य सरदार ईर्ष्या करने लगे। एक बार दिल्ली के सुल्तान के आदमी दंड (टैक्स) लेने के लिए महेवा पहुंचे। राव कान्हड़देव
ने अपने मंत्रियों के साथ सलाह की, तब माला ने कहा कि हम दंड नहीं देंगे, हम किरोड़ी (टैक्स वसूलने वालों) को मारेंगे। अंत में सब किरोड़ी के आदमियों को अलग-अलग ले जाकर मारना तय हुआ। राठौड़ों ने किरोड़ी को बुलाकर कहा कि
तुम अपने आदमियों को अलग-अलग गांवों में भेजकर दंड वसूल लो। उस वक्त किरोड़ी को माला अपने साथ ले गया। राठौड़ों ने तय किया था कि पांचवें दिन सबको मार दिया जावे। राठौड़ों ने किरोड़ी के सारे आदमियों को मार दिया, पर माला ने किरोड़ी को मारने की बजाय
उसकी खूब खातिरदारी की और सारा हाल बयां कर दिया। किरोड़ी माला को साथ लेकर सुल्तान के पास गया और कहा कि यह बड़ा वफादार है। सुल्तान ने माला को अपनी सेवा में रख लिया और उसको रावलाई का टीका दिया। माला कुछ समय तक दिल्ली में ही रहा।”
मुहणौत नैणसी द्वारा किए गए उपर्युक्त वर्णन में एक त्रुटि है। उस समय गुजरात में मुसलमानों की बादशाहत कायम नहीं हुई थी, इसलिए सलखा को सम्भवतः किसी और मुसलमान ने कैद किया होगा।
सलखा की जागीर वाला गांव उनके निवास के कारण सलखावासनी नाम से प्रसिद्ध हुआ। सिवाना की तरफ से मुसलमानों ने कान्हडदेव के समय महेवा पर आक्रमण करके फ़तह हासिल कर ली।
इस समय सलखा ने महेवा का एक भाग मुसलमानों से छीन लिया और स्वतंत्र रूप से उस भाग पर राज करने लगे। कुछ समय बाद कान्हडदेव ने पुनः मुसलमानों को परास्त करके महेवा का राज्य पुनः प्राप्त किया, परन्तु एक भाग पर सलखा का राज बना रहा।
राव त्रिभुवनसी, राव सलखा व राव मल्लीनाथ से संबंधित वर्णन अगले भाग में किया जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)