राजा वीरसिंह देव बुंदेला :- ये ओरछा के राजा मधुकर शाह के पुत्र थे। इन्होंने अकबर के समय मुगल सल्तनत से बगावत की थी, लेकिन जहांगीर के समय उसके मित्र बन गए थे। बुंदेलखंड में आज भी राजा वीरसिंह का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वहां के स्थापत्य में इनका विशेष योगदान है।
अबुल फजल :- अबुल फजल का जन्म 14 जनवरी, 1551 ई. को आगरा में हुआ। अबुल फजल शेख मुबारक का बेटा था। अबुल फजल अकबर का खास दरबारी लेखक था। उसने तवारीख ‘अकबरनामा’ की रचना की।
1598-1599 ई. में अकबर ने अबुल फजल को दक्षिण की मुहिम में भेजा। जब अबुल फ़ज़ल देवलगांव होते हुए अकबर के बेटे मुराद की छावनी में पहुंचा, तब कुछ समय बाद मुराद की हालत बिगड़ गई और उसकी मृत्यु हो गई।
इस वक्त अबुल फजल के साथ उसका बेटा अब्दुर्रहमान भी था। अबुल फजल फ़ौज समेत अहमदनगर गया। दक्षिण में अहमदनगर और असीरगढ़ पर मुगलों ने फ़तह हासिल कर ली।
इस वक्त ख़बर आई कि सलीम (जहांगीर) ने अकबर के विरूद्ध बग़ावत कर दी है। जहांगीर को लोगों ने भड़काया कि अकबर खुसरो को वलीअहद बनाने की सोच रहा है और इस षड्यंत्र में अबुल फजल भी शामिल है।
1602 ई. में जहांगीर को खबर मिली कि अकबर ने अबुल फजल को पैगाम भेजा है कि फौरन मुगल दरबार में हाजिर हो जावे। यह खबर मिलते ही जहांगीर को बड़ी चिंता हुई, वह किसी तरह चाहता था कि अबुल फजल अकबर तक ना पहुंचे।
अकबर का संदेश पाते ही अबुल फजल अपने साथियों समेत रवाना हुआ। 22 अगस्त, 1602 ई. को अंतरी कस्बे से 3 कोस दूर धूल उड़ती देखकर अबुल फजल रुक गया। इस वक्त उसका साथी गदाई खां पठान बोला कि
“ठहरने का वक्त नहीं है, दुश्मन तेजी से आ रहा है। हमारे पास कम आदमी हैं, आप यहां से लौट जाएँ, मैं अपने साथियों के साथ दुश्मन को रोकता हूँ। आप अंतरी तक पहुंच गए, तो फिर कोई खतरा नहीं होगा।”
अबुल फजल ने कहा कि “तेरे मुंह से ऐसी बात अच्छी नहीं लगती, मैं अगर इस वक्त भाग गया, तो शहंशाह को क्या मुंह दिखाऊंगा”
गदाई खां फिर घोड़ा दौड़ाकर अबुल फजल की बराबरी पर आया और कहा कि “ये वक्त अड़ने का नहीं है, अंतरी जाओ और वहां से ज्यादा फ़ौज लेकर वापिस आकर बदला लो, ये फ़ौजी दांव-पेच है।”
लेकिन अबुल फजल तैयार नहीं हुआ। थोड़ी ही देर में अबुल फजल ने देखा कि सामने ओरछा के वीरसिंह देव बुंदेला अपने 3 हज़ार सैनिकों के साथ खड़े हैं।
दोनों पक्षों के सिपाहियों ने अपनी-अपनी तलवारें निकाली और टूट पड़े। यह लड़ाई एक पक्षीय रही, बुंदेला राजपूत हावी रहे और अबुल फजल के साथी एक-एक करके मरते गए।
अबुल फजल के भी कई घाव लग चुके थे, कि तभी एक राजपूत ने बरछे से अबुल फजल पर ऐसा वार किया कि वह घोड़े से गिर पड़ा। उसके साथी लड़ते रहे और आखिर में सब के सब मारे गए।
लड़ाई के बाद बुंदेला राजपूतों ने अबुल फजल को ढूंढना शुरू किया। आखिरकार वह एक पेड़ के नीचे लाशों के बीच पड़ा मिला। वीरसिंह देव बुंदेला के आदेश से अबुल फजल का सिर काट दिया गया और जहांगीर को तोहफे में भिजवाया गया।
कहते हैं कि जहांगीर ने कई दिनों तक अबुल फजल के सिर को पाखाने में रखा और बाद में किसी ने उसको अंतरी में दफना दिया। अबुल फजल के मरने की खबर अकबर के पास पहुंची, तो उसे बहुत दुःख हुआ। उसने कई दिनों तक दरबार नहीं किया और रोता रहा।
1605 ई. में जब जहांगीर मुगल बादशाह बना, तो उसने राजा वीरसिंह देव बुंदेला को 3 हजार का मनसब दिया। जहांगीर अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-जहांगीरी में लिखता है कि
“अबुल फ़ज़ल अपनी अक्लमंदी की वजह से मेरे बाप की नज़रों में बहुत ऊंचा उठ गया था। उसने अपनी सारी काबिलियत मेरे बाप के हाथों बेच दी थी। उसको मेरे बाप ने दक्षिण से बुलाया था। अबुल फ़ज़ल मन से मेरी तरफ ईमानदार नहीं था। खुले तौर पर वह मेरे ख़िलाफ़ बातें
किया करता था। इस वक्त कई लोगों ने मेरे बाप को मेरे ख़िलाफ़ भड़का दिया था, ऐसे में लगने लगा कि अगर अबुल फ़ज़ल मेरे बाप के पास पहुंच गया, तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी और वह मुझे मेरे बाप से मिलने भी नहीं देगा। इसलिए यह जरूरी हो गया कि उसको दरबार में हाजिर
होने से रोका जावे। वीरसिंह देव का मुल्क अबुल फजल के रास्ते में पड़ रहा था और इन दिनों वीरसिंह देव बग़ावत पर उतर आया था। इसलिए मैंने उसके पास ख़त भिजवाया और कहलवाया कि अगर उसने अबुल फजल को मार दिया, तो हर तरफ की नेकनियमतों से नवाज़ा
जाएगा। जब अबुल फ़ज़ल वीरसिंह देव के मुल्क से गुज़र रहा था, तब राजा ने उसका रास्ता रोक लिया और हल्की सी लड़ाई के बाद अबुल फजल के आदमियों को तितर-बितर करके उसको मार डाला। वीरसिंह देव ने
अबुल फजल का सिर मेरे पास इलाहाबाद भेज दिया। हालांकि अबुल फजल के मरने से मेरे बाप को बड़ा गुस्सा आया, पर उसके मरने की वजह से ही मैं अपने बाप के सामने जा सका और धीरे-धीरे उनका गुस्सा भी दूर होता गया।”
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)