मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह (भाग – 1)

महाराणा क्षेत्रसिंह का परिचय :- महाराणा हम्मीर की सोनगरा रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो आगे जाकर महाराणा क्षेत्रसिंह के नाम से मशहूर हुए। महाराणा क्षेत्रसिंह को महाराणा खेता, खेतसी, खेतल आदि नामों से भी जाना गया।

महाराणा मोकल द्वारा बनवाए गए बापी कुंड के शिलालेख में महाराणा क्षेत्रसिंह को ‘क्षत्रियवंशमंडलमणि’ की उपाधि दी गई है।

महाराणा क्षेत्रसिंह का राज्याभिषेक :- 1364 ई. में महाराणा हम्मीर के देहान्त के बाद महाराणा क्षेत्रसिंह राजगद्दी पर बैठे। महाराणा क्षेत्रसिंह के शासनकाल की जानकारी गोगुन्दा गांव में स्थित एक मंदिर के शिलालेख से मालूम होती है, यह शिलालेख 14 जूून, 1366 ई. का है।

मेवाड़ की सीमा का विस्तार :- इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा के अनुसार महाराणा क्षेत्रसिंह ने अजमेर, जहाजपुर, मांडल व छप्पन पर आक्रमण कर इन क्षेत्रों को मेवाड़ में मिलाया।

महाराणा क्षेत्रसिंह

हाड़ौती विजय :- महाराणा हम्मीर के समय हाड़ा राजपूतों से मेवाड़ के संबंध ठीक रहे, परंतु उनके देहांत के बाद दोनों राज्यों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ। महाराणा क्षेत्रसिंह ने हाड़ौती पर हमला कर विजय प्राप्त की।

कुम्भलगढ़ के शिलालेख (1460 ई.) में लिखा है कि “महाराणा क्षेत्रसिंह ने हाड़ावटी के स्वामियों को जीतकर उनका मण्डल (क्षेत्र) अपने अधीन किया।”

मांडलगढ़ पर आक्रमण :- हाड़ा राजपूतों ने मांडलगढ़ तक अधिकार स्थापित कर लिया था। इनके बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए महाराणा क्षेत्रसिंह ने मांडलगढ़ पर हमला किया व दुर्ग की प्राचीर तोड़ दी। महाराणा दुर्ग पर अधिकार किए बगैर ही लौट गए।

एकलिंगजी मंदिर के दक्षिणद्वार की प्रशस्ति (1488 ई.) में लिखा है कि “महाराणा क्षेत्रसिंह ने मंडलकर (मांडलगढ़) के प्राचीन किले को तोड़कर उसके भीतर के योद्धाओं को मारा और युद्ध में हाड़ों के समूह को नष्ट कर उनकी भूमि को अपने अधीन किया।”

हालांकि कुम्भलगढ़ व श्रृंगी ऋषि के शिलालेखों को देखा जाए, तो मालूम पड़ता है कि महाराणा क्षेत्रसिंह ने मांडलगढ़ की दीवारें तोड़ी अवश्य थीं, परन्तु दुर्ग पर अधिकार नहीं किया था।

दरअसल हुआ ये था कि जब महाराणा क्षेत्रसिंह इस दुर्ग की दीवारें तुड़वा रहे थे, तब हाड़ा राजपूतों ने समर्पण कर दिया और महाराणा की अधीनता स्वीकार कर ली, जिसके बाद महाराणा ने वहां से प्रस्थान किया।

मांडलगढ़ दुर्ग

हाड़ा राजपूतों द्वारा अधीनता स्वीकार करने वाली बात पक्षपातपूर्ण नहीं है, क्योंकि हाड़ा राजपूतों के शिलालेख से भी यह बात सिद्ध होती है। मेवाड़ के पूर्वी हिस्से में स्थित मैनाल में बम्बावदा के हाड़ा महादेव ने 1389 ई. में एक शिलालेख खुदवाया।

इस शिलालेख में लिखा है कि “हाड़ा महादेव ने महाराणा क्षेत्रसिंह की तरफ से लड़ते हुए अपनी तलवार से शत्रुओं की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न कर दिया। उसने अमीशाह (दिलावर खां गौरी) पर अपनी तलवार उठाकर मेदपाट (मेवाड़) के स्वामी महाराणा खेता (क्षेत्रसिंह) की रक्षा की।”

इस शिलालेख से यह सिद्ध होता है कि हाड़ा महादेव महाराणा क्षेत्रसिंह की तरफ से अर्थात उनके अधीन रहकर लड़ते थे। अब यहां बाकरोल के युद्ध का वर्णन किया जा रहा है, जिसमें दिलावर खां गौरी से हुई लड़ाई का वर्णन है।

बाकरोल का युद्ध :- मालवा का दिलावर खां गौरी, जिसको अमीशाह के नाम से भी जाना जाता है, उसने मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। बाकरोल नामक स्थान पर मेवाड़ और मालवा वालों के बीच युद्ध हुआ। बाकरोल चित्तौड़गढ़ से 20 मील उत्तर में स्थित है।

बाकरोल हमीरगढ़ का ही पुराना नाम है, हमीरगढ़ वर्तमान में भीलवाड़ा जिले में स्थित है। इस लड़ाई में हाड़ा महादेव ने दिलावर खां पर तलवार से वार करके उसे सख़्त ज़ख्मी कर दिया। इस लड़ाई से मेवाड़-मालवा संघर्ष का सूत्रपात हुआ, जो बाद में लंबे समय तक चला।

शिलालेखों में वर्णित है कि इस लड़ाई में महाराणा क्षेत्रसिंह ने अमीशाह को पराजित कर कैद किया, अमीशाह का बहुत सा खज़ाना व घोड़े भी महाराणा चित्तौड़ ले आए।

कुम्भलगढ़ के शिलालेख (1460 ई.) में लिखा है कि “मालवे का स्वामी मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह के हाथों ऐसे पिटा गया कि वह स्वप्न में भी महाराणा को ही देखता है। सर्परूपी उस राजा (महाराणा क्षेत्रसिंह) ने मेंढक के समान अमीशाह को पकड़ा था।”

बूंदी के हाड़ा महादेव के शिलालेख के अनुसार हाड़ाओं ने महाराणा खेता की अधीनता में मालवे के शासक से लड़ाई की थी, इससे प्रतीत होता है कि हाड़ाओं के संबंध फिर से मेवाड़ वालों से ठीक हो गए थे।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग

ईडर के राजा रणमल को कैद करना :- राजा रणमल राजा जैत्रेश्वर के बेटे थे। राजा जैत्रेश्वर को महाराणा हम्मीर ने मारा था। इसलिए ईडर के राजा रणमल मेवाड़ से बगावत किया करतेे थे।

महाराणा क्षेत्रसिंह ने राजा रणमल को पराजित कर कैद किया और ईडर की गद्दी पर रणमल के बेटे को बिठा दिया। इस घटना का वर्णन एकलिंगजी मंदिर के दक्षिणद्वार की प्रशस्ति के तीसरे श्लोक में किया गया है। कुछ समय बाद रणमल कैद से मुक्त हुए और उन्होंने दोबारा ईडर पर कब्ज़ा कर लिया।

अगले भाग में महाराणा क्षेत्रसिंह के देहांत का वर्णन किया जाएगा। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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