मेवाड़ के रावल समरसिंह (भाग – 1)

रावल समरसिंह का व्यक्तित्व :- रावल समरसिंह अपने महान पूर्वजों की भांति वीर थे। वे प्रजाहितैषी, सधर्म मर्मज्ञ, कीर्तिमान, शत्रुओं का संहार करने में सिंह के सदृश, आचार्यों का सम्मान करने वाले, दानी व धर्मनिष्ठ शासक थे।

1273 ई. में रावल तेजसिंह व रानी जयतल्लदेवी के ज्येष्ठ पुत्र रावल समरसिंह मेवाड़ की राजगद्दी पर विराजमान हुए। रावल समरसिंह ने चित्तौड़ के तलारक्ष क्षेम के पुत्र मदन को चित्तौड़ का तलारक्ष (नगर रक्षक) घोषित किया। रावल समरसिंह के शासनकाल में मेवाड़ के महामात्य (महामंत्री) निम्बा थे।

बलबन :- 1265 ई. में दिल्ली सल्तनत सुल्तान बलबन के हाथों में आई। बलबन ने सल्तनत के विभागों में कई परिवर्तन किए। बलबन ने सिजदा, पायबोस और नौरोज़ की प्रथा शुरू की।

सिजदा में घुटने के बल बैठकर सुल्तान के सामने सिर झुकाना पड़ता था और पायबोस में सुल्तान के पैर चूमने पड़ते थे। बलबन को गरीब व निम्न दर्जे के लोगों से सख़्त नफरत थी। बलबन ने सीधे तौर पर कभी मेवाड़ पर आक्रमण नहीं किया।

रावल समरसिंह

बलबन के सेनापति को परास्त करना :- 1285 ई. के शिलालेख के अनुसार रावल समरसिंह ने गुजरात में आये हुए बाहरी शत्रुओं को पराजित कर गुजरात की रक्षा की। गुजरात पर ये आक्रमण दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन बलबन के एक सेनापति ने किया था।

खिलजियों का दिल्ली पर कब्ज़ा :- 1287 ई. में दिल्ली के सुल्तान बलबन की मृत्यु हो गई। 1287 से 1290 ई. तक दिल्ली की सल्तनत बलबन के पोते कैकुबाद के हाथों में रही। 1290 ई. में ये सल्तनत 70 वर्षीय जलालुद्दीन खिलजी के हाथों में आई।

1296 ई. में रावल समरसिंह ने 11 जैन मंदिरों के लिए छत्र व कई प्रतिमाओं की स्थापना करवाई। इसी वर्ष अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को मारकर दिल्ली का तख़्त हथिया लिया।

खिलजियों से जुर्माना वसूलना :- 1299 ई. में अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति उलुग खां फौज समेत वागड़, मोडासा आदि नगरों को नष्ट करता हुआ गुजरात पहुंचा। लेकिन गुजरात जाने से पहले जब वह मेवाड़ से गुजर रहा था, तब उसे रावल समरसिंह से खतरे का अनुभव हुआ।

जब रावल समरसिंह ने उलुग खां को घेर लिया, तो उलुग खां ने भारी जुर्माना देकर रावल समरसिंह से पीछा छुड़ाया। इस घटना की जानकारी जिनप्रभ सूरी द्वारा लिखित ‘तीर्थकल्प’ नामक ग्रंथ से मिलती है।

मालवा की फ़ौज को परास्त करना :- एक समय था जब मालवा के परमार शासकों ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अधिकार कर रखा था, बड़ी मुश्किल से ये दुर्ग गुहिलों के हाथों में आया था। परन्तु अब समय बदल चुका था, गुहिल शासक दिन-प्रतिदिन हावी होते जा रहे थे।

रावल समरसिंह की मेवाड़ी फौज और मालवा के परमार शासक के प्रधान गोगादेव के बीच एक युद्ध हुआ। राणपुर के शिलालेख के अनुसार इस लड़ाई में रावल समरसिंह विजयी रहे और मेवाड़ के प्रमुख सामंत व सेनापति राणा लक्ष्मणसिंह ने बड़ी बहादुरी दिखाई।

जीव हत्या पर प्रतिबंध :- ‘अंचलगच्छ की पट्टावली’ ग्रंथ के अनुसार रावल समरसिंह ने जैन आचार्य अमितसिंह सूरी के प्रभाव से मेवाड़ में जीव हत्या पर प्रतिबंध लगाया।

रावल समरसिंह के शासनकाल में हुए निर्माण कार्य व जीर्णोद्धार कार्यों का वर्णन :- अचलेश्वर मन्दिर का जीर्णोद्धार :- रावल समरसिंह ने आबू के अचलेश्वर मंदिर के निकट वाले मठ का जीर्णोद्धार करवाया, अचलेश्वर मंदिर पर ध्वजादंड चढ़ाया और वहां रहने वाले साधुओं के भोजन की व्यवस्था की।

आबू का अचलेश्वर मन्दिर

त्रिभुवन नारायण मंदिर का जीर्णोद्धार :- 1301 ई. में रावल समरसिंह के समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित त्रिभुवन नारायण मंदिर का जीर्णोद्धार प्रतिहारवंशी महारावत पाता के पुत्र धरसिंह ने करवाया। यह मंदिर परमार राजा भोज द्वारा बनवाया गया था।

शीतला माता के मंदिर का निर्माण :- रावल समरसिंह के शासनकाल में ऊंटाला गांव (वर्तमान में उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित) में शीतला माता के मंदिर का निर्माण करवाया गया।

महासतिया के कोट व प्रवेशद्वार का निर्माण :- चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित विजय स्तम्भ के निकट महासतिया नामक स्थान है, जहां दाह संस्कार किया जाता था। यहां कुछ छतरियां मौजूद हैं। रावल समरसिंह ने महासतिया के चारों तरफ एक कोट व मुख्य प्रवेशद्वार का निर्माण करवाया।

जैन कीर्ति स्तम्भ :- रावल समरसिंह के शासनकाल में 1300 ई. के आसपास बघेरवाल जैन व्यापारी जीजाशाह ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक ऊंचे चबूतरे पर जैन कीर्ति स्तम्भ का निर्माण करवाया। जीजा के पिता का नाम ‘नाय’ था।

जैन कीर्तिस्तंभ

जैन कीर्ति स्तम्भ में 7 मंजिल हैं। ऊंचाई 75 फीट है। ये प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। स्तम्भ की चारों दिशाओं में आदिनाथ की 4 खड़ी प्रतिमाएं बनी हुई हैं। स्तम्भ पर जैन धर्म से सम्बंधित सैंकड़ों प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।

बिजली गिरने के कारण इसका शीर्ष हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया था, जिसका जीर्णोद्धार महाराणा फतहसिंह ने करवाया। जैन कीर्ति स्तम्भ का अन्य नाम ‘मेरु कनकप्रभः’ भी है।

कुछ विद्वान इस कीर्तिस्तंभ के निर्माण का समय 11वीं-12वीं शताब्दी के आसपास मानते हैं। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इसका निर्माणकाल 1301 ई. में माना है।

पाठक जैन कीर्ति स्तम्भ को महाराणा कुम्भा द्वारा बनवाया गया विजय स्तम्भ समझने की भूल न करें। दोनों अलग-अलग हैं। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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