महाराणा सज्जनसिंह की बीमारी :- अजमेर से महाराजा जसवन्तसिंह ने कलकत्ता व महाराणा सज्जनसिंह ने चित्तौड़गढ़ की तरफ प्रस्थान किया। इसी दौरान 3 दिसम्बर को कर्नल वाल्टर उदयपुर से चित्तौड़गढ़ की तरफ जा रहा था।
वह रास्ते में देवरी नामक स्थान पर महाराणा की सवारी देखकर रुका। उसने कविराजा के पास आकर कहा कि “आपने अच्छा किया, जो महाराणा को इस हालत में यहां ले आए”। 7 दिसम्बर को महाराणा ने उदयपुर राजमहलों में प्रवेश किया।
10 दिसम्बर की अर्द्धरात्रि को महाराणा सज्जनसिंह बेहोश हो गए। इस वक्त डॉक्टर अकबर अली, उदयराम पाणेरी, मामा अमानसिंह, महता प्यारचंद आदि लोग मौजूद थे। डॉक्टर अकबर अली ने इलाज शुरू किया और कृष्णसिंह बारहट बग्घी में बैठकर रेजीडेंसी से डॉक्टर जेम्स शेपर्ड को बुला लाए।
शेपर्ड ने भी इलाज किया। महाराणा की तबियत ज्यादा खराब होने की खबर सुनकर कविराजा श्यामलदास, राय पन्नालाल, सरदारगढ़ के ठाकुर मनोहरसिंह डोडिया, जानी मुकुंदलाल और अब्दुर्रहमान खां दौड़ते हुए महाराणा के पास जा पहुँचे।
रात भर महाराणा का इलाज चलता रहा। उनके पैर, पिंडलियों और गर्दन पर ब्लिस्टर लगाए गए, जिससे दूसरे दिन करीब 8 बजे प्रातःकाल को होश आया। महाराणा ने 10 हज़ार रुपए दान करने का संकल्प लिया और थोड़ी देर बातचीत की।
इस समय महाराणा माणक चौक में थे। डॉक्टरों ने सलाह दी कि माणक चौक में कांच लगे हुए हैं, जिनके अक्स से ये बीमारी बढ़ सकती है। तब महाराणा सूरज चौपाड़ में चले आए।
चित्तौड़गढ़ की तरफ दौरे पर गए कर्नल वाल्टर को भी तार द्वारा बुलाया गया। 11 दिसम्बर को महाराणा को उन्माद होने लगा अर्थात निरर्थक बातें करने लगे। 12 दिसम्बर को नींद नहीं आने से उन्माद बढ़ने लगा, जो कि 15 दिसम्बर तक इतना बढ़ गया कि जिंदगी की कोई उम्मीद न रही।
16 दिसम्बर को महाराणा सज्जनसिंह में मनुष्यों को पहचानने की क्षमता कम हो गई। इस वक्त डॉक्टर जेम्स शेपर्ड, डॉक्टर सर्जन मलन, विंगेट आदि मौजूद थे, जो महाराणा का इलाज कर रहे थे। डॉक्टरों ने महाराणा को क्लोरल नामक दवा दी।
इस दवा से रात की 12 बजे तक नींद आ गई और सुबह तक नींद पूरी होने से होशहवास लौट आए। 22 दिसम्बर तक महाराणा लगभग स्वस्थ दिखने लगे। 23 दिसम्बर को महाराणा ने कहा कि आज मेरी तबियत दुरुस्त है, इसलिए भोजन परोसिए।
महाराणा ने सरदारगढ़ के ठाकुर मनोहरसिंह डोडिया, कृष्णसिंह बारहट और उज्वल फतहकरण के साथ बैठकर भोजन किया। इसके बाद महाराणा के पिता बागोर महाराज शक्तिसिंह आए और बातचीत की।
प्रत्यक्षदर्शी कविराजा श्यामलदास ग्रंथ वीरविनोद में लिखते हैं कि “सायंकाल के वक्त मैं ओवरी में भोजन करने गया, तो 6 बजे नारायण मर्दन्या दौड़ता हुआ आया और बोला कि जल्दी चलो। मैं दौड़कर गया और देखा कि महाराणा को सख़्त मूर्च्छा आ रही है।
सब डॉक्टर बहुत कोशिश करने लगे। महाराज शक्तिसिंह भी दौड़कर आए। महता राय पन्नालाल के कहने पर महाराणा द्वारा संकल्प किए गए 10 हज़ार रुपए दान में दिए गए। इसी वक्त कर्नल वाल्टर भी आ पहुंचे।
डॉक्टरों ने बिजली लगाना वग़ैरह बहुत सी कोशिशें कीं, लेकिन कोई कारगर न हुई। हम लोग रो रहे थे। कर्नल वाल्टर ने मुझ (कविराजा श्यामलदास) को और महता पन्नालाल को बहुत तसल्ली दी। वह वक्त जैसा हमारे ऊपर गुज़रा उसका बयान नहीं हो सकता।
23 दिसम्बर की रात को सवा 10 बजे महाराणा सज्जनसिंह इस दुनिया को छोड़ गए। मैं रातभर अपनी कोठरी में हाय विलाप करता रहा। महलों में और तमाम शहर में कोलाहल मच रहा था। सुबह को जब महाराणा साहिब की आखिरी सवारी निकाली गई, उस वक्त कर्नल वाल्टर साहिब की आंखों से आंसू बह रहे थे।
हज़ारों मर्द, औरत और पांच-पांच वर्ष के छोटे बालक सब चिल्ला-चिल्लाकर रो रहे थे। इस शोक सन्ताप का ज्यादा हाल लिखने से कलेजा फटता है, इसलिए विशेष लिखने की ताकत नहीं। हम लोग महाराणा की दग्ध क्रिया करके अपने-अपने घरों में आ पड़े।”
महाराणा सज्जनसिंह का शासनकाल 10 वर्ष, 3 माह, 8 दिन का रहा। इन महाराणा के बड़े-बड़े इरादे थे, लेकिन कम उम्र में ही परलोक सिधारने के कारण पूरे नहीं हो सके। फिर भी इन महाराणा ने मेवाड़ की बहुत तरक्की की।
महाराणा सज्जनसिंह ने अपने 10 वर्षीय शासनकाल में मेवाड़ में अनेक निर्माण कार्य करवाए। राजपूताने व राजपूताने से बाहर की रियासतों से भी मधुर सम्बन्ध स्थापित किए। जिन रियासतों से मतभेद चले आते थे, उन्हें सुलझाकर अच्छे सम्बन्ध स्थापित किए।
अपने सामन्तों को उनके ठिकानों में जाकर सम्मानित किया, ताकि शासक व सामन्त वर्ग के बीच चले आ रहे मतभेद समाप्त हो सके। पोलिटिकल एजेंट से भी अच्छे तालमेल बनाए रखे, जिससे अंग्रेज अफसर भी महाराणा का बहुत सम्मान करते थे।
शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, साफ-सफाई, काव्य व इतिहास लेखन, सुधार कार्यों और आधुनिकता के मामले में महाराणा सज्जनसिंह का शासनकाल मेवाड़ के लिए स्वर्णकाल था।
महाराणा सज्जनसिंह का परिवार :- इन महाराणा के 3 विवाह हुए :- (1) ईडर के महाराजा जवानसिंह राठौड़ की पुत्री के साथ 1875 ई. में। (2) कृष्णगढ़ के महाराजा पृथ्वीसिंह की पुत्री से 1876 ई. में। (3) ईडर के महाराजा जवानसिंह राठौड़ की दूसरी पुत्री से 1877 ई. में।
इन महाराणा के एकमात्र पुत्र का देहांत जन्म के कुछ घंटे बाद ही हो गया था। पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)