मई, 1876 ई. – नाथद्वारा के गोस्वामी के ख़िलाफ़ कार्रवाई :- नाथद्वारा के गोस्वामी गिरिधरलाल ने अपने पूर्वजों का ढंग छोड़कर राजसी ठाट-बाट से रहना शुरू कर दिया। उसने मंदिर के बाल-भोग में कमी कर दी, यात्रियों से रुपए ऐंठने लगा, दीवानी और फौजदारी मामलों में खुद को स्वतंत्र समझने लगा।
उसे ना काउंसिल की परवाह थी और ना ही महाराणा की। कुछ लोगों को उसने क़ैद कर लिया था और जब महाराणा सज्जनसिंह ने जवाब मांगा तो उसने कोई जवाब न दिया। इसके विपरीत उसने राज आज्ञा का उल्लंघन करते हुए विदेशी सिपाहियों को नौकर रख लिया।
उसके इतने गुनाह देखते हुए काउंसिल में तय हुआ कि गोस्वामी गिरिधरलाल को सबक सिखाना आवश्यक है। गोस्वामी का चाल चलन देखते हुए पहले भी महाराणा स्वरूपसिंह व महाराणा शम्भूसिंह ने गोस्वामी को धमकियां देकर नाथद्वारा को खालसे किया था, लेकिन गोस्वामी में कोई सुधार नहीं हुआ।
पर महाराणा सज्जनसिंह ने गोस्वामी के खिलाफ कार्रवाई करने की ठान ली। 8 मई को बेदला के राव बख्तसिंह चौहान, महता गोकुलचंद व मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट मेजर कैनिंग के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने नाथद्वारा की तरफ़ कूच किया।
गोस्वामी गिरिधरलाल अपने बेटे लालबाबा गोवर्धनलाल, 100 पैदल सैनिक व 100 घुड़सवारों के लश्कर के साथ लालबाग में ठहरा हुआ था। मेवाड़ी फ़ौज के रिसालदार को आदेश दिया गया कि घुड़सवारों के ज़रिए लालबाग को घेर लिया जावे।
आधी फ़ौज व तोपखाने समेत महता गोपालदास को श्रीनाथजी मंदिर की तरफ भेजकर वहां बन्दोबस्त करने का हुक्म हुआ। महता गोकुलचंद को भेजकर गोस्वामी को समझाने का प्रयास किया गया, पर वह नहीं माना।
फिर गंगल जमादार को लालबाग में भेजकर सैनिकों से कहलाया गया कि “भलाई इसी में है कि गोस्वामी का साथ छोड़कर लालबाग से बाहर निकल आओ, वरना मारे जाओगे”
ये बात सुनकर कई सैनिक बाहर निकल आए व शेष गोस्वामी के साथ जमे रहे। फिर ठाकुर मनोहरसिंह व भाणेज मोतीसिंह को भेजकर गोस्वामी को समझाने का प्रयास किया गया।
इसी दौरान मंदिर का बंदोबस्त करने के लिए भेजी गई सैनिक टुकड़ी की तरफ से यह संदेश आया कि गोस्वामी ने जिन विदेशियों को श्रीनाथजी मंदिर में रखा था, उन्होंने बन्दूकें जमा करके मंदिर के द्वार बंद कर रखे हैं।
इस फौजी टुकड़ी को यह संदेश भेजा गया कि अभी मंदिर को घेरे रखो। इसी दौरान ठाकुर मनोहरसिंह व मोतीसिंह ने लालबाग से बाहर आकर कहा कि “गोस्वामी अपनी इज़्ज़त की ख़ातिरी चाहता है।”
लाला हरनारायण, केलवा के जागीरदार व मोही के जागीरदार ने लालबाग में जाकर गोस्वामी से कहा कि “आप उदयपुर चलें, हम आपको इज़्ज़त के साथ ले जाएंगे”
लेकिन फिर भी गोस्वामी टालाटूली करता रहा, तो लालबाग के बाहर खड़े मेवाड़ी फ़ौज के नेतृत्वकर्ताओं ने आधी भील कंपनी व शम्भू पलटन के साथ लक्ष्मणसिंह को आदेश दिया कि “लालबाग के भीतर जाकर गोस्वामी के बेटे लालबाबा को यहां ले आओ और गोस्वामी को पालकी में बिठाकर उदयपुर ले जाओ।”
लक्ष्मणसिंह सेना सहित लालबाग में गए और गोस्वामी के सैनिकों को धमकाकर हटा दिया। गोस्वामी को पालकी में बिठाया गया, तब गोस्वामी ने अपने बेटे लालबाबा का हाथ पकड़कर उसको भी पालकी में बिठा लिया।
यह बात बाहर खड़ी मेवाड़ी फ़ौज तक पहुंची, तो झीलवाड़ा के राजसिंह सोलंकी को भीतर भेजा गया। राजसिंह सोलंकी ने लालबाबा को हाथ पकड़कर खींचकर पालकी से उतार दिया और ‘जय-जय’ का उद्घोष करते हुए लालबाबा को बाहर ले आए।
गोस्वामी के लश्कर से 32 तलवारें, 2 कटारियाँ, 5 ढाल, 1 टोपीदार बंदूक, 1 छुरी वगैरह हथियार ज़ब्त कर लिए गए। गोस्वामी को पालकी में बिठाकर इज़्ज़त के साथ उदयपुर ले जाया गया। मेवाड़ महाराणा गोस्वामियों की बहुत इज़्ज़त करते थे, इतने गुनाहों के बावजूद गोस्वामी को गिरफ़्तार नहीं किया गया।
लालबाबा गोवर्धनलाल व मेवाड़ की काउंसिल के बीच करार हुआ, जिसकी शर्तें कुछ इस प्रकार थीं :- (1) मेवाड़ महाराणा की किसी भी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। (2) श्रीनाथ जी की पूजा जो परंपरा के अनुसार चली आ रही, वह निरन्तर जारी रखी जाएगी।
(3) मंदिर में विदेशियों को काम पर न रखा जाएगा। मंदिर की सुरक्षा के लिए जो भी सिपाही महाराणा तैनात करेंगे, उनकी तनख्वाह गोस्वामी देंगे। (4) दीवानी और फौजदारी प्रबंध के लिए महाराणा अपनी ओर से एक अहलकार नियुक्त करेंगे।
लालबाबा के नाबालिग होने के कारण मंदिर का प्रबंध महता गोपालदास व बालकृष्णदास को सौंपा गया। इन दोनों को आदेश दिया गया कि मंदिर के किसी भी काम में कोई खलल न पड़े और यदि कोई बदइंतजामी हुई, तो जिम्मेदारी तुम्हारी रहेगी।
लालबाबा ने कहा कि “ये चारों शर्तें हमें मंज़ूर हैं। हम उदयपुर जाएंगे, तब श्रीदरबार (महाराणा) जो भी कहेंगे, वह मंज़ूर होगा। हमारी विनती है कि जब हम इस मंदिर की व्यवस्था सम्भाल पाने के लायक हो जावें तब हमें हमारे खानदानी अधिकार सौंप दिए जावें।”
गोस्वामी की तरफ के कुछ आदमियों ने मेवाड़ वालों के खिलाफ गलत बर्ताव किया, जिसके चलते 15 आदमियों को गिरफ़्तार किया गया। बाद में काउंसिल ने इन सबको रिहा कर दिया, लेकिन निर्भयराम व आपा नाम के 2 व्यक्तियों को क़ैद में ही रखा।
उदयपुर में महाराणा सज्जनसिंह ने गोस्वामी का वेतन एक हज़ार रुपए निर्धारित करके उसको 21 मई, 1876 ई. को मथुरा भेज दिया। लेकिन इस गोस्वामी का चाल चलन मथुरा में भी ठीक न रहा और इसके उपद्रव की शिकायतें मेवाड़ आती रहीं, तब महाराणा ने इसका वेतन बंद कर दिया।
7 जून को महाराणा सज्जनसिंह नाथद्वारा पधारे और लालबाबा गोवर्द्धनलाल को गद्दी पर बिठाने का दस्तूर अदा किया। गोवर्द्धनलाल की उम्र कम होने के कारण महाराणा ने मंदिर का प्रबंध अपने हाथ में लिया। महाराणा ने पहले तो महता गोपालदास और फिर मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या को वहां का प्रबंधकर्ता नियुक्त किया।
मथुरा में मौजूद गिरधरलाल अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा था। उसने कोटा व गुजरात से श्रीनाथ जी के लिए आने वाली भेंट में खलल डालने के खूब प्रयास किए, परन्तु महाराणा सज्जनसिंह ने मंदिर का बंदोबस्त ऐसा ज़बरदस्त किया था कि गिरधरलाल को कामयाबी नहीं मिली।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)