1874 ई. – महाराणा शम्भूसिंह का देहांत :- गर्मी के मौसम में महाराणा शम्भूसिंह अपने रनिवास सहित गोवर्द्धनविलास महलों में थे, कि तभी 16 जुलाई को महाराणा के पेट में दर्द शुरू हुआ। रनिवास को उदयपुर राजमहलों में भेज दिया गया।
महाराणा गोवर्द्धनविलास के कुंवरपदा महल में ही ठहरे। कविराजा श्यामलदास, ठाकुर मनोहरसिंह, गढ़ी के अमरसिंह चौहान, बदनमल, धायभाई हुक्मा व धायभाई गणेशलाल महाराणा के साथ ही मौजूद रहे।
डॉक्टर अकबरअली ने इलाज किया पर कुछ लाभ न हुआ। फिर महाराणा को उदयपुर राजमहल में लाया गया। 20 जुलाई को महाराणा को बुखार आया, लेकिन मालूम नहीं पड़ा कि आखिर बीमारी क्या है। 21 जुलाई को डॉक्टर अकबर अली का इलाज बन्द करवा दिया गया।
किफायत अली, अलवर के वैद्य नारायण भट्ट व रुपनाथ ने चिकित्सा आरंभ की। इन्होंने सौंठ, मिर्च व पीपल की गोलियां दीं, लेकिन कुछ लाभ न हुआ। जब बीमारी का ही पता नहीं था, तो भला ये दवाएं क्या काम आतीं।
जब वैद्य-हकीमों से बात न बन पाई, तब 28 जुलाई को बेदला के राव बख्तसिंह चौहान ने अर्ज़ किया कि अब अंग्रेजी डॉक्टर से इलाज करवाना चाहिए।
एजेंसी के सर्जन डॉक्टर बर को उदयपुर राजमहल में लाया गया। आखिरकार डॉक्टर बर ने महाराणा की सही बीमारी का पता लगा लिया। सर्जन ने जांच की, तो पता चला कि महाराणा के कलेजे पर सूजन है, जिसके पक जाने का खतरा है।
डॉक्टर बर व उसके अधीनस्थ डॉक्टर अकबर अली का इलाज जारी रहा। 5 अगस्त को पिछोला झील पूरी भर कर छलक गई। ऐसा नज़ारा देखने के लिए महाराणा शम्भूसिंह 10 वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे। डॉक्टर बर ने भी सलाह दी कि थोड़ी हवाखोरी करनी चाहिए।
8 अगस्त को महाराणा महलों के चौक तक गए। 14 अगस्त को महाराणा के सिर में दर्द हुआ व हल्का बुखार भी आया। 22 अगस्त को महाराणा को तन्दुरुस्ती का एहसास हुआ, तो उन्होंने रोगमुक्तस्नान किया।
28 अगस्त को महाराणा पिछोला झील देखने पधारे। 6 सितंबर को महाराणा घोड़े पर सवार हुए और थोड़ी दूर तक जाकर वापस लौट आए। महीना भर हालत कुछ दुरुस्त रही। महाराणा शम्भूसिंह के कलेजे के फोड़े ने एक बार फिर ज़ोर पकड़ा।
4 अक्टूबर को नीमच के एक डॉक्टर को बुलाया गया। प्रत्यक्षदर्शी कविराजा श्यामलदास ने ग्रंथ वीरविनोद में महाराणा के देहांत का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा कि “7 अक्टूबर की रात को महाराणा को कलेजे में बड़ी पीड़ा हुई।
ठाकुर मनोहरसिंह, मैं (कविराजा श्यामलदास), बदनमल, धायभाई हुक्मा, धायभाई रघुलाल, साह जोरावरसिंह सुराणा, महासाणी रतनलाल और डॉक्टर अकबर अली महाराणा साहिब के पास मौजूद थे। महाराणा साहिब ऐसी हालत में भी बड़े खुशमिजाज थे।
महाराणा साहिब ने मुझको कहानी कहने का हुक्म दिया। मैंने दिलखुशाल महल की चौपाड़ के दरवाजे में पलंग के पास बैठकर कहानी कही। महाराणा ने पानी मांगा, तब साह जोरावरसिंह सुराणा ने हाथ के सहारे से उन्हें पलंग पर बिठाया कि
उसी वक्त आँख ने चक्कर खाया और करीब साढ़े दस बज राते के वक्त वे इस जहां को छोड़कर चले गए। उस वक्त का हाल देखने वाले जानते हैं कि हम लोगों पर एकदम कैसा वज्र टूट पड़ा था। मैं (कविराजा श्यामलदास) व ठाकुर मनोहरसिंह रोते हुए खुशमहलों में आए।
वह रात्रि हमारे लिए बड़ी लंबी चौड़ी हो गई। 8 अक्टूबर को उनके आंतिक विमान की तैयारी हुई। पोलिटिकल एजेंट कर्नल राइट रात को ही कोठी से महलों में आ गए थे। जनानी ड्योढ़ी का पुख्ता बन्दोबस्त किया गया, ताकि कोई भी सती न होने पावे।
महाराणा की 4 सहेलियां सती होने के लिए उठीं, लेकिन जनानी ड्योढ़ी के किवाड़ बन्द थे। बाहर पहरे पर मौजूद बेदला के राव बख्तसिंह, महता लालचंद, प्यारचंद, देवीचंद वग़ैरह को भीतर से हज़ारों गालियां दी गईं। महाराणा साहिब के साथ सती न होने देने का यह पहला और पुराने खयालात का आखिरी हुल्लड़ था।
महाराणा साहिब के विमान को देखकर कर्नल राइट की आंखों से आंसू गिरते थे। शहर की आम रिआया (प्रजा) पांच वर्ष के बच्चे से लेकर बूढ़ों तक अनुमान 25 हज़ार औरत मर्द बड़ी दर्दनाक आवाज़ से रो रहे थे। बस इस हाल को हम (कविराजा श्यामलदास) ज्यादा नहीं लिख सकते, देखने वाले ज़िंदा रहेंगे तब तक नहीं भूलेंगे।”
महाराणा शम्भूसिंह की छतरी उदयपुर के आहड़ में स्थित महासतिया में बनवाई गई। यह स्थान महाराणा अमरसिंह प्रथम के ज़माने से ही मेवाड़ राजवंश का दाह संस्कार स्थल है।
इन महाराणा की दाहक्रिया के बाद 5 हाथी, 9 घोड़े, 2 बैल, 269 गायें दान में दी गईं। 26 वर्ष, 9 माह, 12 दिन की अल्पायु में ही महाराणा शम्भूसिंह का देहांत हो गया। इन महाराणा ने 12 वर्ष, 10 माह, 12 दिन तक राज किया।
महाराणा शम्भूसिंह का इतिहास यहीं समाप्त होता है। अगले भाग से महाराणा सज्जनसिंह का इतिहास लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)