मेजर टेलर का उदयपुर आना :- 19 अप्रैल, 1860 ई. को कप्तान शावर्स के स्थान पर मेजर टेलर मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त होकर उदयपुर आया, पर रियासती कामों में मेवाड़ वालों ने उसका दखल पसंद न किया, जिस वजह से वह नाराज़ होकर चला गया।
तलवार बंधाई की रस्म :- 29 मई, 1860 ई. को आमेट के रावत चतरसिंह पृथ्वीसिंहोत की तलवार बंधाई की रस्म हुई। 5 नवम्बर, 1860 ई. को बिजोलिया के राव सवाई गोविन्ददास की तलवार बंधाई की रस्म हुई।
महाराणा स्वरूपसिंह व महता शेरसिंह के बीच तकरार :- इन दिनों महाराणा स्वरूपसिंह व महता शेरसिंह के बीच नाइत्तफाकी बढ़ती जा रही थी, जिस कारण महाराणा ने शेरसिंह से ज़ुर्माना वसूल करना चाहा।
1 दिसम्बर, 1860 ई. को राजपूताने के ए.जी.जी जॉर्ज लॉरेंस और मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट का उदयपुर आना हुआ। इन दोनों ने शेरसिंह का पक्ष लिया, जिस कारण महाराणा और इन अफसरों के बीच भी रंज बढ़ गया।
15 अगस्त, 1861 ई. – मेवाड़ में सती प्रथा पर रोक :- 1829 ई. में ही हिंदुस्तान के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने अंग्रेजी इलाकों में सती प्रथा पर रोक लगा दी थी और देशी राज्यों पर भी रोक लगाने के प्रयत्न किए थे। महाराणा स्वरूपसिंह जी की इच्छा थी कि यह प्रथा जारी रहे, क्योंकि महाराणा पुरानी प्रथाओं के पक्षधर थे।
अंग्रेजों ने महाराणा से इस मसले पर कई बार बातचीत की, पर महाराणा टालमटूल करते रहे व 16 वर्ष बीत गए। हिंदुस्तान में अंग्रेज सरकार के प्रधान सेक्रेटरी चार्ल्स वुड ने एक खत एक अंग्रेज अफ़सर को लिखा, जिसमें लिखा था कि
“हिंदुस्तान भर में सिर्फ उदयपुर के महाराणा साहिब ही हैं, जिन्होंने अब तक सती प्रथा और समाधि प्रथा को रोकने में अंग्रेज सरकार का सहयोग नहीं किया है। सती प्रथा को बंद करने में आप अपनी पूरी कोशिश करें।”
अंग्रेज अफ़सर ईडन ने महाराणा स्वरूपसिंह को एक ख़त लिखा, जिसमें लिखा था कि “अंग्रेज सरकार कहती है कि सती होना आत्महत्या ही है, पर इस बात से महाराणा साहिब इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते। उनका मानना है कि जो स्त्री स्वयं ही अपने पति के साथ सती होना स्वीकार करे,
उसे आत्महत्या में नहीं गिना जा सकता, क्योंकि यह प्रथा चारों युग में जारी रही है। अंग्रेज सरकार किसी भी धर्म के मामले में दखलंदाजी नहीं करती है, यहां अंग्रेज सरकार सिर्फ इंसान के जीव को बचाना चाहती है। इस मामले में कोई शक़ नहीं होना चाहिए कि ये एक आत्महत्या है।”
इस प्रकार के ख़तों का कई बार आदान-प्रदान होने के बाद आखिरकार महाराणा स्वरूपसिंह ने अंग्रेजों की बात मानकर मेवाड़ में हुक्म जारी करके सती प्रथा पर रोक लगा दी।
अब यहां पर एक अन्य पक्ष भी देख लेना चाहिए, क्योंकि अधूरा सत्य नुकसानदेह होता है। वीरविनोद ग्रन्थ के लेखक कविराजा श्यामलदास लिखते हैं कि “सती होने के एक बड़े रिवाज़ को बंद करने में बहुत सी कोशिशें की गई, फिर भी महाराणा ने अपने आखिर समय तक इस रिवाज़ को कायम रखा।
मैंने (कविराजा श्यामलदास ने) खुद अपनी आंखों से कई औरतों को सती होते हुए देखा है। वर्तमान समय के लोग ये ख़्याल न करें कि सती होने वाली औरतों को कोई नशे की चीज़ देकर या जबरन जला देते थे, जैसा कि यूरोपियन लोगों का ख़्याल है।
अव्वल बात तो ये कि सभी औरतें सती नहीं होती थीं, अगर जबरन जलाने का रिवाज़ होता, तो सभी औरतें सती होतीं। प्राचीन समय से लोगों का यह ख़्याल है कि सती होने वाली स्त्री अपनी खुशी और ईश्वर की आज्ञा से सती होती थी।
मैंने अपनी आंखों से देखा है कि 1850 ई. में उदयपुर के महलों में जनानी ड्योढ़ी की एक दासी दोपहर के वक्त एक स्वप्न देखकर अचानक नींद से जागी और 11 वर्ष पहले मरे हुए पति की याद में सती होने का मन बना लिया।
उस दासी को अन्य महिलाओं ने समझाया कि यह मात्र एक स्वप्न है, तो उस दासी ने दहकते अंगारों को अपने हाथों में लिया और बोली कि मुझे किसी तरह की कोई जलन नहीं हो रही है। ये दृश्य देखकर सभी ने उसकी बात मान ली और वह दासी सती हो गई।
सती होने में ज़ोर ज़बरदस्ती के मामले हज़ार में से एक-दो ही देखे गए हैं। यह एक आम रिवाज़ था कि जो स्त्री सती होने को कहती, उसके परिवार वाले, रिश्तेदार, सरकारी मुलाज़िम आदि लोग उसको समझाकर सती न होने की सलाह देने में कोई कमी नहीं रखते थे।
हालांकि हज़ार में से एक-दो मामले ऐसे भी होते थे, जब कोई स्त्री सती होना तय करके चिता पर बैठ जाती, पर फिर आग के डर से उठने लगती, तो उसको जबरन आग में धकेला जाता।”
लेखक की निजी राय :- कविराजा का बयान सही है कि सती प्रथा में ज़ोर ज़बरदस्ती के मामले हज़ार में से एक-दो ही होते थे। ये बात भी सत्य है कि जैसे यदि किसी राजा की 10 रानियां हों, तो उसमें 1 या 2 ही सती होती थीं। यहां तक कि दासी और पुरुष दास के सती होने का भी वर्णन पढ़ने में आता है।
कुछ ऐतिहासिक वर्णन में तो मरने वाले व्यक्ति के बेहद करीबी पशु-पक्षी तक जल जाया करते थे। लेकिन इतने सब के बावजूद समय के अनुसार निर्णय भी बदले जाने चाहिए।
यदि हज़ार में से एक-दो के साथ भी अन्याय होता हो, तो उस अन्याय को रोकना अनुचित नहीं जान पड़ता। लेकिन इन एक-दो मामलों को छोड़कर जो वास्तविक सती हुई थीं, उनके सतीत्व का सम्मान हृदय से किया जाना चाहिए।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)