तीर्थयात्रा से लौटना :- तीर्थयात्रा से लौटते समय जब महाराणा सरदारसिंह ने बीकानेर में पड़ाव डाला, तब वहां बागोर के महाराज शेरसिंह के पुत्र शार्दूलसिंह व शिवरती के महाराज दलसिंह का विवाह बीकानेर के महाराजा रतनसिंह राठौड़ की नजदीकी रिश्तेदारियों में हुआ।
शार्दूलसिंह का विवाह शक्तिसिंह की पुत्री नन्द कंवर बाई के साथ हुआ व दलसिंह का विवाह अक्षयसिंह की पुत्री अजीत कंवर बाई के साथ हुआ।
14 अक्टूबर, 1840 ई. को महाराणा सरदारसिंह ने बीकानेर से प्रस्थान किया और 27 अक्टूबर को अजमेर पहुंचे, जहां राजपूताने के ए.जी.जी. सदरलैंड से मुलाक़ात हुई। इस समय आसींद के रावत दूलहसिंह भी वहां आ पहुंचे और महाराणा से मिले।
सदरलैंड ने रावत दूलहसिंह को बहुत उलाहना दिया, क्योंकि उक्त रावत ने महाराणा के साथ तीर्थयात्रा में जाने से मना कर दिया था। सदरलैंड ने बेदला के राव बख्तसिंह चौहान की जमकर तारीफ़ की, क्योंकि वे तीर्थयात्रा में महाराणा के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले थे।
महाराणा अजमेर से रवाना होकर भिणाय व बागोर होते हुए 16 नवम्बर, 1840 ई. को उदयपुर पहुंचे और 19 नवंबर को मुहूर्त देखकर राजमहलों में दाखिल हुए। जनवरी, 1841 ई. को भील कोर के गठन हेतु खेरवाड़ा में भीलों की एक सेना संगठित करने का कार्य शुरू किया गया।
9 अप्रैल, 1841 ई. – गोगुन्दा में पड़ाव :- महाराणा सरदारसिंह ‘धींगा गणगौर’ के अवसर पर अपने ससुराल गोगुन्दा पधारे। (धींगा गणगौर नामक त्योहार की शुरुआत महाराणा राजसिंह जी प्रथम द्वारा की गई थी)
गोगुन्दा में महाराणा सरदारसिंह ने आड़ा स्वरूपसिंह, रोहड़िया बारहट लक्ष्मणदान, आड़ा चिमनसिंह, महडू प्रभुदान आदि चारणों को हाथी व सिरोपाव दान में दिए। गोगुन्दा के राजराणा शत्रुसाल झाला ने महाराणा को फौज समेत दावत दी व चारणों को सिरोपाव दिए। 3 दिन गोगुन्दा में ठहरकर महाराणा उदयपुर पधारे।
मई-जून, 1841 ई. – चारभुजा यात्रा :- महाराणा सरदारसिंह उदयपुर से रवाना हुए और देलवाड़ा में ठहरे, फिर कोठारिया में भी पड़ाव डाला। महाराणा सरदारसिंह चारभुजा, कांकरोली, नाथद्वारा दर्शन करते हुए 7 जून को पुनः उदयपुर के राजमहल में दाखिल हुए।
23 अक्टूबर, 1841 ई. – स्वरूपसिंह को उत्तराधिकारी घोषित करना :- महाराणा जवानसिंह की तरह महाराणा सरदारसिंह के भी कोई पुत्र नहीं था, जिस कारण किसी नज़दीकी रिश्तेदार को गोद लेने की आवश्यकता हुई।
इस बारे में महाराणा ने सदरलैंड व रॉबिन्सन से भी बातचीत की। महाराणा सरदारसिंह का अपने छोटे भाई शेरसिंह से झगड़ा होने के कारण उन्होंने शेरसिंह से भी छोटे भाई स्वरूपसिंह को गोद लेकर उत्तराधिकारी घोषित किया।
महाराणा सरदारसिंह का देहांत :- महाराणा सरदारसिंह को जलन की बीमारी हुई, जो कि पैरों के तलवे से शुरू होकर धीरे-धीरे पूरे शरीर में फ़ैल गई। वैद्य ने काफी उपचार किए पर कोई लाभ न हुआ, तब महता रामसिंह की सलाह पर एक यूरोपियन डॉक्टर बुलाया गया, पर उसके इलाज से भी महाराणा को राहत न मिली।
3 जून, 1842 ई. को महाराणा ने यूरोपियन डॉक्टर को विदा किया। महाराणा ने शेष जीवन वृंदावन में बिताने का विचार किया। 10 जून, 1842 ई. को महाराणा ने उदयपुर से प्रस्थान किया। पहला पड़ाव आंबेरी में हुआ। वहां से देलवाड़ा, नेगड्या, राबचा, नाथद्वारा, बड़ारड़ा, दोऊन्दा होते हुए 19 जून, 1842 ई. को महाराणा राजनगर पहुंचे।
23 जून, 1842 ई. को महाराणा राजनगर (राजसमंद) होते हुए मोरचणा पहुंचे, जहां उनकी बीमारी काफी बढ़ गई। 26 जून, 1842 ई. को महाराणा की बढ़ती बीमारी देखकर दूलहसिंह वगैरह सरदार उन्हें फिर से राजनगर ले आए।
इस वक़्त अंग्रेज अफ़सर कप्तान क्रोस्मिन भी महाराणा के साथ था। महता रामसिंह, रावत दूलहसिंह, पुरोहित श्यामनाथ ने विचार किया कि अब तो महाराणा को मथुरा ले जाना तो दूर की बात रही, वापिस उदयपुर ले जाना भी मुश्किल लग रहा है।
इस तरह उक्त खैरख्वाहों ने सलाह करके वैद्य साधु रामरत्न दादूपंथी को बुलाया, जिसने नब्ज़, शरीर के चिह्न वगैरह देखकर उन सबको सलाह दी कि महाराणा को उदयपुर ले जाइए, अब इनका अंतिम समय निकट है। कुछ को छोड़कर सभी सरदारों को वैद्य की सलाह पसन्द आई।
कुछ सरदारों ने कहा कि अगर महाराणा स्वस्थ हो जाएंगे, तो इस बात से सख़्त नाराज़ होंगे कि हम लोग उन्हें मथुरा की बजाय उदयपुर ले आए। बहरहाल, अधिकतर सामंतों की इच्छानुसार महाराणा को उदयपुर ले जाना तय किया गया।
रास्ते में महाराणा ने पूछा कि “मुझे कहाँ लिए जाते हो”। तो सामंतों ने कहा “वृंदावन”। इस पर महाराणा ने “बहुत अच्छा” कहा और ये कहते ही बेहोश हो गए। महाराणा को उदयपुर से बाहर रेजीडेंसी की कोठी में लाया गया। इस वक्त उत्तराधिकारी स्वरूपसिंह भी वहां आ पहुंचे।
13 जुलाई, 1842 ई. को महाराणा उदयपुर राजमहलों में लाये गए। 14 जुलाई, 1842 ई. को महाराणा सरदारसिंह का देहांत हो गया। दूसरे दिन उनकी दाहक्रिया की गई व लच्छूबाई नाम की खवासन उनके साथ सती हुई।
परिवार :- महाराणा सरदारसिंह की 4 रानियां थीं। महाराणा सरदार सिंह जी की एक रानी ने उदयपुर में अम्बराई घाट का निर्माण करवाया, जिसे मांझी घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह घाट पीछोला झील पर गणगौर घाट के विपरीत दिशा में स्थित है।
महाराणा सरदारसिंह की निम्नलिखित 3 पुत्रियां हुईं :- (1) मेहताब कंवर :- इनका विवाह बीकानेर के कुंवर सरदारसिंह राठौड़ के साथ हुआ। (2) फूल कंवर :- इनका विवाह कोटा के महाराव रामसिंह हाड़ा के साथ हुआ। (3) सौभाग कंवर :- इनका विवाह रीवां के महाराजकुमार रघुराज सिंह के साथ हुआ।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)