27 मई, 1833 ई. को महाराणा जवानसिंह ने अपने बड़े भाई अमरसिंह जी की विधवा रानी चांपावत जी को अपनी माता के स्थान में मानकर बड़े आदर भाव से बाईजीराज की गद्दी पर बिठाया।
मेवाड़ की रानी का देहांत :- 28 जून, 1833 ई. को ताणा के राज भैरवसिंह झाला की पुत्री का विवाह बेदला के राव तख्तसिंह चौहान के साथ हुआ। महाराणा जवानसिंह भी इस मौके पर ताणा की हवेली में पधारे, लेकिन उसी समय महाराणा की पत्नी रानी देवड़ी का देहांत हो गया।
लोगों ने जब महाराणा तक यह ख़बर पहुंचाई, तो महाराणा ने कहा कि इस बात को गुप्त रखा जावे, क्योंकि मैंने राज भैरवसिंह से उनके आख़िरी वक़्त में यह वादा किया था कि तुम्हारे बेटे की परवरिश और बेटी का कन्यादान मैं अपने हाथों से करूँगा।
महाराणा जवानसिंह की यह बात सुनकर वहां मौजूद सब लोग अचंभित रह गए। कन्यादान करने के बाद रात्रि को महाराणा उदयपुर के राजमहलों में आए और अगले दिन सुबह रानी की दग्ध क्रिया की गई।
1833 ई. – जूड़े पर महाराणा का अधिकार :- जूड़ा के भीलों ने सिरोही के निकट 8 अंग्रेजों को मार डाला, जिसमें जूड़ा के राव का भी सहयोग रहा। कर्नल स्पीयर्स ने फौजें भेजकर जूड़े पर अधिकार कर लिया और यह इलाका महाराणा जवानसिंह के सुपुर्द कर दिया।
भील कोर :- कर्नल स्पीयर्स ने महाराणा जवानसिंह से कहा कि अंग्रेज सरकार के निरीक्षण में भील कोर का गठन किया जावे, पर उसका खर्च आप देवें। इसके बदले में आप तक भोमट के ठिकाने की आय का दसवां हिस्सा बतौर खिराज पहुंचता रहेगा।
महाराणा जवानसिंह को ये प्रस्ताव पसंद न आया व उन्होंने इस बात से मना कर दिया, जिससे भील कोर की स्थापना स्थगित रही।
महाराणा जवानसिंह की तीर्थ यात्रा :- 18 अगस्त, 1833 ई. को महाराणा जवानसिंह 10 हज़ार की फ़ौज व अन्य नौकर-चाकर सहित उदयपुर से रवाना हुए और चम्पाबाग में ठहरे।
22 अगस्त को महाराणा चम्पाबाग से रवाना हुए और एकलिंगनाथ जी के दर्शनों को पहुंचे। फिर वहां से पलाणा, बनेडिया, जूणदा, लाखोलां, गुरलां व भिलाडे होते हुए 1 सितंबर को शाहपुरा पहुंचे। शाहपुरा के राजाधिराज माधवसिंह ने महाराणा की अच्छी खातिरदारी की।
5 सितंबर को महाराणा शाहपुरा से रवाना हुए और गांव सांगरे, कादेड़े, केकड़ी, बघेरे, राजमहल, हमीरपुर, गलोल, नवाई, दतवास होते हुए लालसोट पहुंचे। लालसोट में जयपुर की तरफ से दुणी के राव जीवनसिंह और दीवान अमरचंद महाराणा के सामने हाजिर हुए।
22 सितम्बर को महाराणा जवानसिंह डीग पहुंचे, जहां भरतपुर की तरफ से दीवान भोलानाथ और नन्दराम दरबार में आए। महाराणा ने उनको खिलअत आदि देकर विदा किया। 23 सितंबर को महाराणा गोवर्द्धनपुरी पहुँचे। 25 सितंबर को महाराणा वृंदावन पहुंचे। वृंदावन में उन्होंने दान, पुण्य, जप, पूजा आदि कार्य किए।
1 अक्टूबर को महाराणा जवानसिंह मथुरा पहुंचे। 4 अक्टूबर को महाराणा गोकुल पहुंचे और 17 अक्टूबर को कानपुर पहुंचे। वहां महाराणा ने गंगा स्नान किया। 27 अक्टूबर को महाराणा प्रयाग पहुंचे। प्रयाग में महाराणा ने त्रिवेणी का स्नान व दान-पुण्य के कार्य किए।
4 नवम्बर को महाराणा जवानसिंह प्रयाग से रवाना हुए और अयोध्या पहुंचे। इस इलाके में लखनऊ के बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने महाराणा की बड़ी खातिरदारी की।
इन दिनों महाराणा जवानसिंह की खूबसूरती, सरलता और उनके पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को ध्यान में रखते हुए वहां के लोगों ने कहा कि “राजा रामचन्द्र जी की गद्दी के वारिस लंबा सफ़र तय करके अपनी राजधानी अयोध्या को देखने आए हैं।”
लखनऊ के नवाब की तरफ से अयोध्या के नाज़िम राजा दर्शनसिंह महाराणा जवानसिंह के सामने हाजिर हुए। राजा दर्शनसिंह ने महाराणा पर फूल उछालकर उनका भव्य स्वागत किया। इन दिनों वहां की प्रजा ने महाराणा को देखकर मेवाड़ की प्रजा से भी ज्यादा खुशी व्यक्त की।
अयोध्या की यात्रा पूरी होने के बाद रास्ते में महाराणा जवानसिंह ने राजा दर्शनसिंह को खिलअत देकर विदा किया। 26 नवम्बर को महाराणा ने बनारस में पड़ाव डाला। वहां महाराणा ने पंचकोशी सहित पूरे बनारस की यात्रा की। वहां महाराणा ने बहुत से दान पुण्य के कार्य किए।
29 दिसम्बर को महाराणा जवानसिंह बनारस से प्रस्थान करके गया पहुंचे, जहां उन्होंने अष्ट तीर्थी व बुद्ध गया की यात्रा की। गया में उन्होंने अपने पिता महाराणा भीमसिंह का विधिपूर्वक श्राद्ध किया।
महाराणा जवानसिंह ने अपने तीर्थ गुरु आसाराम को हाथी, घोड़ा, ऊंट, पालकी, रथ, मियाना, सरोपाव, गहना, ढाल, तलवार, 10 हज़ार रुपए नकद व अन्य सोने चांदी का सामान दक्षिणा में दिया। महाराणा ने आसाराम के बेटे को कड़ा, डोरा, सरोपाव व पालकी भेंट की। महाराणा ने आसाराम के भतीजे को कड़ा, डोरा व सरोपाव भेंट किया।
महाराणा जवानसिंह ने तीर्थ गुरु गंगाधर को हाथी, घोड़ा, सरोपाव, गहना, नकद आदि भेंट किया। 9 फरवरी, 1834 ई. को गया से प्रस्थान किया और 24 फरवरी को मिर्जापुर पहुंचे, जहां उन्होंने विंध्यवासिनी देवी के दर्शन किए। यहां पर रीवां के महाराजकुमार विश्वनाथ सिंह भी फ़ौज समेत आए और महाराणा से भेंट की।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (ठि. लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)