1782 ई. – महाराणा भीमसिंह द्वारा सामन्तों को समझाना :- महाराणा अरिसिंह के समय से ही मेवाड़ के कुछ सामन्तों ने महाराणा का साथ छोड़ दिया था और रतनसिंह नाम के राजपूत व्यक्ति को महाराणा करार देकर वास्तविक महाराणा को गद्दी से बर्खास्त करने के प्रयास करते रहे।
जब महाराणा भीमसिंह गद्दी पर बैठे, तो कुछ समय बाद उन्होंने इन सामन्तों को समझा बुझाकर अपनी तरफ मिलाना शुरू कर दिया, जिससे सामन्तों ने रतनसिंह का साथ छोड़ दिया। फिर 11 मार्च, 1782 ई. को महाराणा भीमसिंह देवगढ़ पधारे।
कुम्भलगढ़ में नकली महाराणा बन के बैठे हुए रतनसिंह के प्रमुख सहयोगी देवगढ़ के रावत राघवदास चुंडावत थे। महाराणा भीमसिंह रावत राघवदास को समझाकर अपने साथ उदयपुर ले आए। इस तरह रतनसिंह की शक्ति क्षीण हो गई।
सलूम्बर रावत की पुत्रियों का विवाह :- 1782 ई. में सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत ने बीकानेर, ईडर, रतलाम और देलवाड़ा में अपनी 4 बेटियों के विवाह करवाए। इन विवाहों में महाराणा भीमसिंह ने कुल मिलाकर 10 लाख रुपए खर्च कर दिए।
चारण, भाट आदि लोगों को 6 महीनों तक बराबर त्याग बांटा गया। जो कोई शख्स इस मांग के साथ महाराणा के पास आया, उसे निराश नहीं किया गया। कहते हैं कि एक शख्स एक मटके में बहुत से मेंढक भर लाया था, उसका भी महाराणा ने त्याग चुकाया।
त्याग :- त्याग वह प्रथा होती थी, जिसमें पुत्री के विवाह पर चारण, भाट आदि को मुंहमांगी या मोटी रकम दी जाती थी। बाद में इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया था, जिससे राजकोष पर असर पड़ने लगा। बाद में अंग्रेजों ने इस प्रथा पर रोक लगाई, जिसका वर्णन फिर कभी किया जाएगा।
1783 ई. – शक्तावत व चुंडावत राजपूतों में पारस्परिक कलह :- इन दिनों चुंडावतों का जोर बढ़ता जा रहा था। सलूम्बर के रावत भीमसिंह चुंडावत इस समय चित्तौड़गढ़ के किलेदार थे। कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत व आमेट के रावत प्रतापसिंह चुंडावत महाराणा के निकट रहकर राजकाज के कार्यों में अहम भागीदारी निभाते थे।
कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत ने महाराणा की आज्ञा पाकर भींडर के स्वामी मुहकम सिंह शक्तावत पर हमला किया व महल को जा घेरा, क्योंकि रतनसिंह की तरफदारी करने के कारण महाराणा भींडर वालों से नाराज़ थे।
हमले की ख़बर सुनकर संग्रामसिंह शक्तावत (रावत लालसिंह शक्तावत के पुत्र) ने कुराबड़ पर हमला कर दिया। कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह वहां नहीं थे। संग्रामसिंह कुराबड़ के मवेशियों को घेरकर ले जाने लगे, तो उन्हें रोकने के लिए जालिम सिंह (रावत अर्जुनसिंह के पुत्र) आ पहुंचे।
संग्रामसिंह ने बर्छे से जालिम सिंह का कत्ल कर दिया। ये खबर सुनकर रावत अर्जुनसिंह ने अपनी पगड़ी उतारकर सिर पर फैंटा बांध लिया और प्रतिज्ञा की कि “जब तक इसका बदला न ले लूं, तब तक पगड़ी नहीं पहनूंगा”। रावत अर्जुनसिंह ने कुछ वर्ष बाद बदला लिया, जिसका वर्णन सही मौके पर किया जाएगा।
महाराणा भीमसिंह का ईडर में विवाह :- महाराणा भीमसिंह का पहला विवाह ईडर के राजा शिवसिंह की पुत्री अक्षय कंवर से तय हुआ। कोटा के झाला जालिमसिंह ने मामा के रिश्ते से निम्नलिखित सामान गेंंता के हाड़ा नाथसिंह और कनाड़ी के झाला भवानीसिंह के हाथों उदयपुर भिजवाया।
इस सामान में हीरे की पहुंची जोड़ी, मोतियों की एक माला, एक ढाल, एक सिलहट, सोने से सुजज्जित एक तलवार, सोने से सुसज्जित एक कटार, कुछ सिरोपाव व कुछ घोड़े ज़ेवर सहित शामिल थे। यह सब सामान महाराणा के सामने पेश किया गया।
फिर महाराणा भीमसिंह उदयपुर से ईडर के लिए रवाना हुए। पहला पड़ाव तीतरड़ी गांव में हुआ। बारात में कोटा के दोनों सरदार हाड़ा नाथसिंह व झाला भवानीसिंह एक हज़ार घुड़सवारों के साथ, देवगढ़ के रावत राघवदास चुंडावत, आमेट के रावत प्रतापसिंह चुंडावत, बाबा महाराज अर्जुनसिंह, कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह चुंडावत आदि गए।
तीतरड़ी में महाराणा भीमसिंह ने रावत अर्जुनसिंह चुंडावत को अव्वल दर्जे के सरदारों के बराबर सम्मान देकर पारसोली की बैठक में बिठाया। तीतरड़ी से रवाना होकर महाराणा ने अगला पड़ाव बड़गांव में डाला। बड़गांव में ईडर के राजा शिवसिंह राठौड़ के पुत्र भवानी सिंह पेशवाई हेतु आए।
बड़गांव से रवाना होने के बाद डूंगरपुर के रावल शिवसिंह 2 हज़ार आदमियों के साथ बारात में शामिल हो गए। ईडर से 4 कोस तक ईडर के राजा शिवसिंह पेशवाई हेतु आए। 15 मई, 1784 ई. को यह विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ।
इस अवसर पर महाराणा भीमसिंह ने ईडर के राजा शिवसिंह को अपनी गद्दी पर सामने की तरफ बिठाकर सम्मानित किया। ईडर से लौटकर देव गदाधर (प्रसिद्ध सांवला जी) के दर्शन करके महाराणा भीमसिंह डूंगरपुर पहुंचे।
डूंगरपुर रावल शिवसिंह ने नज़र, निछावर, पगमन्डे आदि सब दस्तूर अदा करके बहुत अच्छी तरह खातिरदारी की। फिर महाराणा भीमसिंह उदयपुर लौट आए। आगे का इतिहास अगले भाग में लिखा जाएगा।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)