महाराणा राजसिंह द्वारा मारवाड़ की सहायता करना :- जजिया का विरोध करने के कारण औरंगज़ेब महाराणा राजसिंह पर पहले ही बिगड़ा हुआ ही था कि तभी एक और घटना ने उसे और भड़का दिया।
मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह राठौड़ के देहांत के बाद उनके पुत्र अजीतसिंह इस समय दुधमुंहे बालक थे, इसलिए औरंगज़ेब ने मारवाड़ पर अधिकार कर लिया और अब वह कुँवर अजीतसिंह को मारना चाहता था।
मारवाड़ को इन कठिन परिस्थितियों में वीर दुर्गादास राठौड़ का नेतृत्व मिला, ये कुँवर अजीतसिंह के संरक्षक थे। दुर्गादास जी, सोनिंग जी आदि मारवाड़ी राजपूतों ने कुँवर अजीतसिंह को लेकर किशनगढ़ में शरण ली, पर वहां ज्यादा समय नहीं टिक पाये, तब ये लोग मेवाड़ पहुंचे और महाराणा राजसिंह से शरण मांगी।
दुर्गादास जी राठौड़ ने ज़ेवर सहित एक हाथी, 11 घोड़े, एक तलवार, रत्नजड़ित कटार व 10 हजार चांदी के सिक्के महाराणा राजसिंह को भेंट की।
महाराणा ने कुँवर अजीतसिंह व दुर्गादास जी को 12 गाँवों समेत केलवा का पट्टा देकर कहा कि आप निश्चिंत रहिए, एक लाख सिसोदियों और राठौड़ों के सम्मिलित सैन्य का मुकाबला करना औरंगज़ेब के बस की बात नहीं। इस प्रकार यहां मेवाड़ और मारवाड़ के बीच बड़े समय बाद एकता देखने को मिली।
औरंगज़ेब ने महाराणा को 3 बार फ़रमान भेजकर कुँवर अजीतसिंह को आगरा भेजने का आदेश दिया, लेकिन महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब के किसी भी फ़रमान का जवाब तक नहीं दिया।
3 सितंबर, 1679 ई. को मुगल बादशाह औरंगज़ेब स्वयं के नेतृत्व में एक विशाल फौज के साथ अजमेर के लिए रवाना हुआ। इसी दिन औरंगज़ेब ने अपने बेटे शहज़ादे अकबर को पालन कस्बे से अजमेर के लिए रवाना किया ताकि अकबर जल्दी अजमेर पहुंच जाए।
औरंगज़ेब की मेवाड़ के विरुद्ध इस बड़ी चढ़ाई से पहले यहां इस बादशाह और उसकी सल्तनत से जुड़ी कुछ बातें बताई जा रही हैं :- औरंगज़ेब की धर्मांधता के बारे में तो पहले ही बहुत बताया जा चुका है, कि किस तरह उसने मंदिरों को तुड़वाने के फरमान जारी किए और जज़िया भी लागू कर दिया। औरंगज़ेब ने होली, दीवाली जैसे त्योहारों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने सती प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाया।
अक्सर उस ज़माने के बादशाहों को जो शौक होते थे, वो औरंगज़ेब में बिल्कुल नहीं थे। उसने भांग, शराब और जुए पर प्रतिबंध लगवा दिया और वेश्याओं को देश छोड़ने का हुक्म दिया।
औरंगज़ेब को चित्रकारी से भी नफ़रत थी। उसने कई किलों में बने हुए भित्ति चित्रों को पुतवा दिया। उसे नई इमारतें बनवाने में भी कोई रुचि नहीं थी, बल्कि उसने अपने ही बाप-दादों की बनवाई हुई कई इमारतें भी तुड़वा डालीं। मेवाड़ के वीर जयमल जी व वीर पत्ता जी की मूर्तियां, जो कि अकबर ने आगरा में बनवाई थीं, वो औरंगज़ेब ने तुड़वा डालीं।
औरंगज़ेब को नाच-गानों का भी कोई शौक नहीं था। उसने संगीत पर प्रतिबंध लगवा दिया, जिसके बाद देश के कई संगीतकारों ने उसके महलों के आगे वाद्ययंत्रों का जनाज़ा निकाला। औरंगज़ेब ने बाहर आकर उनसे कहा कि “इन्हें इतना अंदर तक दफना दो कि इनकी आवाज़ बाहर ना आए”।
शायद आपको ये जानकर हैरानी हो, लेकिन सत्य है कि औरंगज़ेब के शासनकाल में हिन्दू मनसबदारों का प्रतिशत 33 प्रतिशत था, जो कि मुगलकाल में सर्वाधिक था। इन हिंदुओं में सबसे ज्यादा संख्या मराठा और दक्षिण के अमीरों की थी।
बहरहाल, 13 दिन का सफर तय करके 16 सितंबर, 1679 ई. को औरंगज़ेब ने अजमेर पहुँचकर ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर ज़ियारत करने के बाद जहांगीर द्वारा आनासागर झील की पाल पर बनवाए हुए महलों में विश्राम किया।
27 अक्टूबर, 1679 ई. को औरंगज़ेब ने अजमेर से तहव्वुर खां को खिलअत, हाथी, तीर-कमान आदि देकर मांडल आदि परगनों को ज़ब्त करने के लिए फौज समेत मेवाड़ रवाना किया। इसी दिन औरंगज़ेब ने हसन अली खां को 7 हज़ार की फौज देकर महाराणा राजसिंह से लड़ने के लिए रवाना किया।
औरंगज़ेब ने नागौर के राव इंद्रसिंह को नीमच, रघुनाथसिंह को सियाना, मुहकम सिंह मेडतिया को पुर में थाने कायम करने के लिए भेजा। अहमदाबाद के सूबेदार मोहम्मद अमीन खां को मेवाड़ के आसपास तैनात किया गया।
औरंगज़ेब ने अपने बेटे शहज़ादे आज़म को बंगाल से व शहज़ादे मुअज़्ज़म को उज्जैन से फ़ौज सहित हाजिर होने का हुक्म भिजवाया। 1 दिसम्बर, 1679 ई. को औरंगज़ेब स्वयं मुगल फौज सहित उदयपुर की ओर रवाना हुआ। इसी दिन शहज़ादा अकबर मेड़ता की तरफ से आकर औरंगज़ेब के सामने हाजिर हुआ।
मेवाड़ी दरबार :- महाराणा राजसिंह ने औरंगज़ेब की मेवाड़ पर चढ़ाई की ख़बर सुनते ही फौरन दरबार बुलाया, जिसमें निम्नलिखित दरबारी, सामंत व सहयोगी उपस्थित थे व इन सभी ने औरंगज़ेब के विरुद्ध युद्ध में भी भाग लिया था :-
महाराणा राजसिंह के दोनों पुत्र महाराजकुमार जयसिंह व कुँवर भीमसिंह, महाराणा के भाई अरिसिंह, अरिसिंह के चारों पुत्रों :- 1) भगवंत सिंह, 2) सुभाग सिंह, 3) फतह सिंह, 4) गुमान सिंह, मारवाड़ केसरी वीर राठौड़ दुर्गादास, मारवाड़ के राठौड़ सोनिंग विट्ठलदासोत चाम्पावत,
सलूम्बर के रावत रतनसिंह चुण्डावत, कानोड़ के रावत मानसिंह सारंगदेवोत, डूंगरपुर के रावल जसवंत सिंह, प्रधान साह दयालदास ओसवाल, अबू मलिक अज़ीज़, नीमड़ी के महेचा राठौड़ अमरसिंह, रामसिंह खींची, महासिंह डोडिया,
भावसिंह राणावत (महाराणा अमरसिंह के पुत्र सूरजमल के तीसरे पुत्र), महाराज मनोहर सिंह (महाराणा कर्णसिंह के पुत्र गरीबदास के पुत्र), महाराज दलसिंह (महाराणा कर्णसिंह के पुत्र छत्रसिंह के पुत्र), बदनोर के सांवलदास राठौड़ (वीर जयमल राठौड़ के वंशज),
बेदला के राव सबलसिंह चौहान, बड़ी सादड़ी के चंद्रसेन झाला, बान्सी के रावत केसरीसिंह शक्तावत अपने पुत्र गंगदास शक्तावत सहित, देलवाड़ा के झाला जैतसिंह, बिजोलिया के बैरीसाल पंवार, बेगूं के रावत महासिंह चुण्डावत, आमेट के रावत मानसिंह चुंडावत,
पारसोली के राव केसरीसिंह चौहान, भीण्डर के मुहकम सिंह शक्तावत, रूपनगर के विक्रमादित्य सोलंकी, कोठारिया के रावत रुक्मांगद चौहान, गोगुन्दा के झाला जसवंत सिंह, घाणेराव के गोपीनाथ राठौड़, राजपुरोहित गरीबदास।
छापामार लड़ाई :- मेवाड़ के इस दरबार में सबने अलग-अलग सुझाव दिए। किसी ने कहा कि चित्तौड़गढ़ में रहकर लड़ना चाहिए, तो किसी ने कहा कि अजमेर से निकलते ही बादशाही फ़ौज पर छापा मार दिया जावे। महाराणा राजसिंह को ये सलाह रास नहीं आई।
फिर राजपुरोहित गरीबदास ने महाराणा से अर्ज़ किया कि “महाराणा उदयसिंह, महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह पहाड़ी लड़ाइयां लड़कर ही लगभग आधी सदी तक मुगलों का विरोध करते रहे और कामयाब भी रहे। इसी कारण से अकबर, जहांगीर और शाहजहां मेवाड़ वालों से सुलह करने में ग़नीमत समझते थे। औरंगज़ेब की विशाल फौज का सामना आप खुले मैदान में ना करके छापामार तरीके से करें तो सफ़ल रहेंगे। घाटियों में शत्रुओं को घेरें, भूखों मारें और शाही मुल्क लूटें। भीलों को पहाड़ी नाकों में तैनात करें।”
महाराणा राजसिंह को ये सलाह पसंद आई और उन्होंने अपने पूर्वज महाराणा प्रताप व महाराणा अमरसिंह के लड़ने का तरीका इख्तियार किया और राजपरिवार, प्रजा व जरुरी फौज के साथ मेवाड़ के पहाड़ों में प्रस्थान करने का फैसला किया।
महाराणा राजसिंह द्वारा औरंगज़ेब से खुले मैदान में न लड़ने का एक कारण ये भी था कि औरंगज़ेब के साथ यूरोपियन अफसरों की कमान में बड़ा तोपखाना था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)