मेवाड़ महाराणा जगतसिंह (भाग – 3)

24 सितंबर, 1629 ई. को महाराणा जगतसिंह व महारानी जनादे बाई मेड़तणी के पुत्र कुँवर राजसिंह का जन्म हुआ। महारानी जनादे बाई जी राजसिंह मेड़तिया राठौड़ की पुत्री थीं। धन्य है वो माता जिन्होंने राजसिंह जी जैसे युगपुरुष को जन्म दिया। एक वर्ष बाद इन्हीं महारानी ने कुँवर अरिसिंह को जन्म दिया।

मेवाड़ का सिरोही पर आक्रमण :- राव अखैराज (अक्षयराज) देवड़ा को महाराणा अमरसिंह ने सिरोही की गद्दी पर बिठाया था, लेकिन राव अखैराज मेवाड़ के उपकारों को भुलाकर महाराणा जगतसिंह के विरुद्ध आचरण करने लगे। उनके पास विश्वस्त मंत्री भेजकर समझाने के प्रयास किए गए, पर वे नहीं माने।

सिरोही दुर्ग का द्वार

अपना जोर दिखाने के उद्देश्य से महाराणा जगतसिंह ने फौज भेजकर सिरोही नगर को लूटा। तोगा बालेचा ने महाराणा जगतसिंह के खिलाफ जाकर राव अखैराज का साथ दिया, तो महाराणा के आदेश से तोगा बालेचा का इलाका भी उनसे छीन लिया गया।

मेवाड़ का बांसवाड़ा पर आक्रमण :- बांसवाड़ा के रावल समरसिंह ने बांसवाड़ा को मेवाड़ से अलग स्वतंत्र रियासत घोषित कर रखा था। महाराणा जगतसिंह ने अपने प्रधान भागचन्द को सेना सहित विदा किया। मेवाड़ी सेना को आते देखकर बांसवाड़ा के रावल समरसिंह ने पहाड़ों में शरण ली।

भागचंद 6 माह तक बांसवाड़ा में पड़ाव डालकर रहे। फिर रावल समरसिंह ने अपनी गलती की क्षमा मांगकर जुर्माने के तौर पर 2 लाख रुपये महाराणा जगतसिंह को नज़र किए और महाराणा की अधीनता स्वीकार की। इस घटना का वर्णन बेड़वास की बावड़ी की प्रशस्ति में किया गया है, ये बावड़ी भागचंद के बेटे फतहचंद ने बनवाई थी।

भागचंद भटनागर जाति के कायस्थ (पंचोली) लक्ष्मीदास के पौत्र और सदारंग के पुत्र थे। महाराणा जगतसिंह ने भागचंद को अपना प्रधान बनाया और उनको ऊंटाला सहित 10 गांव, हाथी, घोड़े आदि दिए।

इस प्रकार महाराणा जगतसिंह ने 1628 ई. में तो देवलिया और डूंगरपुर पर आक्रमण किया व बाद में 1630 से 1633 ई. के मध्य सिरोही और बांसवाड़ा पर आक्रमण किया। चार पड़ोसी मुगल अधीनस्थ राज्यों पर आक्रमण करने से शाहजहां का क्रोधित होना जायज था।

बांसवाड़ा दुर्ग

6 जून, 1631 ई. को शाहजहां की प्रिय बेगम मुमताज महल की मृत्यु हो गई। मुमताज ने 8 पुत्रों व 6 पुत्रियों समेत 14 संतानों को जन्म दिया था, जिनमें से 4 पुत्र व 3 पुत्रियां बाल्यकाल में ही चल बसे। 14वीं संतान गोहर आरा बेगम को जन्म देते समय पीड़ा के कारण मुमताज की मृत्यु हो गई। 2 वर्षों तक शाहजहां ने मुमताज के मरने का शोक रखा।

28 मार्च, 1632 ई. को महाराणा अमरसिंह के पुत्र राजा भीमसिंह के पुत्र राजा रायसिंह सिसोदिया का मनसब शाहजहां ने बढ़ाकर 3 हजार जात और 1200 सवार कर दिया। जून-जुलाई, 1633 ई. में शाहजहां ने राजा रायसिंह सिसोदिया को एक हाथी भेंट किया। टोडारायसिंह नगर का नाम इन्हीं राजा रायसिंह के नाम पर पड़ा।

महाराणा जगतसिंह ने अपनी बहन अनूपदे बाई का विवाह नागौर के वीर योद्धा अमरसिंह जी राठौड़ से करवाया। इन्हीं दिनों महाराणा जगतसिंह ने अपनी बहन का विवाह बूंदी के राव शत्रुसाल हाड़ा से करवा दिया। (ग्रंथ वीरविनोद में भूलवश इनको महाराणा जगतसिंह की बहन ना लिखकर, बेटी लिख दिया है, जो कि अनुचित है।)

राव शत्रुसाल हाड़ा ने इस विवाह में लाखों रुपए खर्च किए। विवाह के समय जब राव शत्रुसाल महलों की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, तब हर एक सीढी पर चारणों को एक-एक हाथी भेंट करते गए।

इस दौरान एक चारण हरिदास को किसी गलतफहमी के कारण हाथी नहीं मिला, तो उन्होंने नाराज होकर मारवाड़ी जबान में ये दोहा कहा :- “जाती काया सांसवे, राव कबड्डी रेस। शत्रशल माया ऊधमै, छाया फल जगतेस।।”

इसका अर्थ ये है कि राव शत्रुशाल हाड़ा बहुत ही कंजूस हैं, एक कौड़ी के लिए अपने शरीर को दुबला करते हैं, पर इस वक्त जो दौलत उड़ा रहे हैं, लगता है महाराणा जगतसिंह की छाया पड़ी है।

चारण कवि के कहने का आशय था कि महाराणा जगतसिंह की दानवीरता का असर राव शत्रुशाल पर पड़ा है। उन दिनों चारण कवि इस प्रकार की बातें बिना झिझक के बोल दिया करते थे।

महाराणा के सामन्तों ने सलाह दी कि आपने चार-चार पड़ोसी मुल्कों पर आक्रमण किया है, इसलिए अब यदि बादशाह का गुस्सा शांत नहीं किया, तो वही हालात फिर से आ जाएंगे जो महाराणा प्रताप और महाराणा अमरसिंह के समय में आए थे।

23 दिसम्बर, 1633 ई. को शाहजहां की नाराजगी दूर करने के लिए महाराणा जगतसिंह की तरफ से अर्जी लेकर कल्याण झाला को मुगल दरबार में भेजा गया। कल्याण झाला ने वहां जाकर अर्जी, एक हाथी व कुछ अन्य उपहार शाहजहां को भेंट किए। कल्याण झाला डेढ़ माह तक शाहजहां के यहीं रहे।

महाराणा जगतसिंह

कल्याण झाला हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति पाने वाले देलवाड़ा के मानसिंह झाला के पुत्र थे। जब 1614 ई. में ख़ुर्रम (शाहजहां) ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था, तब कल्याण झाला को कैद कर लिया गया था, फिर कुछ समय बाद इनको छोड़ दिया गया था।

9 फरवरी, 1634 ई. को शाहजहां ने मथुरा में पड़ाव डाला। यहां शाहजहां ने कल्याण झाला को एक खिलअत व एक घोड़ा देकर विदा किया। साथ में महाराणा जगतसिंह के लिए एक कीमती खिलअत, जड़ाऊ उरवसी (एक प्रकार का गले का गहना या कंठी), एक हाथी, सोने व चांदी से सुसज्जित 2 घोड़े भिजवाए गए।

मेवाड़-मुगल सन्धि की शर्त के अनुसार महाराणा को एक हज़ार घुड़सवार आवश्यकता के समय शाही सेवा में भेजने थे, परन्तु बार-बार कहलाने पर भी महाराणा जगतसिंह ने सेना नहीं भेजी, फिर शाहजहां ने सख़्ती से कहलवाया, तब जाकर महाराणा सेना भेजने को तैयार हुए।

महाराणा जगतसिंह ने धरियावद वालों के पूर्वज व महाराणा प्रताप के तीसरे पुत्र सहसमल के पुत्र भोपतराम को एक सैनिक टुकड़ी सहित दक्षिण की चढ़ाई में भेजा, परन्तु इस सैनिक टुकड़ी में जान बूझकर एक हज़ार से कम सवारों को भेजा गया।

दक्षिण में याकूत के खिलाफ शाही सेना पहले ही भेज दी गई थी। इस सेना में शामिल होने के लिए भोपत सिसोदिया भी अपने सैनिकों समेत चल पड़े, परन्तु रफ्तार धीमी रखी। जब शाही सेना याकूत से लड़ाई लड़ रही थी, तब भोपत सिसोदिया ने नदी का वेग तेज होने के कारण उचित समय पर लड़ाई में भाग न लेने के बहाने बनाए। हालांकि याकूत इस लड़ाई में मारा गया, जिससे शाही सेना विजयी रही।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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