मेवाड़ महाराणा जगतसिंह (भाग – 1)

14 अगस्त, 1607 ई. को महाराणा कर्णसिंह व महारानी जाम्बुवती बाई जी के पुत्र जगतसिंह का जन्म हुआ। महारानी जाम्बुवती बाई जी महेचा राठौड़ जसवन्त सिंह की पुत्री थीं। जगतसिंह वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के प्रपौत्र थे।

भंवर जगतसिंह का अजमेर प्रस्थान :- 1615 ई. में कुँवर कर्णसिंह जहांगीर के पास कुछ अर्ज़ियाँ भेजना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र भंवर जगतसिंह को हरिदास झाला समेत बहुत से राजपूतों के साथ अजमेर भेजा। कुछ दिन के सफर के बाद भंवर जगतसिंह अजमेर पहुंचे।

जहांगीर अपनी आत्मकथा में लिखता है कि “मेवाड़ के कुँवर कर्णसिंह का बेटा जगतसिंह मेरे पास आया, उसकी उम्र 12 साल थी। उसने अपने दादा राणा अमरसिंह और पिता कर्णसिंह की तरफ से कुछ अर्ज़ियाँ पेश की। जगतसिंह के चेहरे से उसके महान कुल का तेज साफ झलक रहा था। मैंने उसको एक खिलअत देकर उसके साथ अच्छा बर्ताव किया।”

जहांगीर ने भूलवश भंवर जगतसिंह की आयु 12 वर्ष बता दी, जबकि उस समय उनकी वास्तविक आयु 7 वर्ष थी। सम्भवतः भंवर जगतसिंह के सुडौल शरीर को देखकर जहांगीर को उनकी आयु को लेकर भ्रम हो गया होगा। मेवाड़ के अधिकतर शासक काफी बलिष्ठ और सुडौल शरीर वाले थे।

महाराणा जगतसिंह

भंवर जगतसिंह का दिल्ली प्रस्थान :- 1616 ई. में जब कुँवर कर्णसिंह दिल्ली जाकर लौट आए, तब उनके पुत्र भंवर जगतसिंह को दोबारा दिल्ली भेजा गया। जहांगीर जब कश्मीर दौरे पर निकला, तब भंवर जगतसिंह और राजा भीमसिंह को भी अपने साथ ले गया। राजा भीमसिंह महाराणा अमरसिंह के पुत्र थे।

फरवरी, 1620 ई. :- जहांगीर अपनी आत्मकथा में लिखता है कि “जिस दिन मैंने सुल्तानपुर गांव में पड़ाव डाला, उसी दिन राणा अमरसिंह के मरने की ख़बर आई। उसकी मौत उदयपुर में हुई। उस वक्त उसका बेटा भीम और पोता जगतसिंह मेरे साथ ही थे। मैंने इनको ख़िलअतें दीं।”

1623 ई. की शुरुआत में कुँवर जगतसिंह जहांगीर के दरबार में गए और कुछ दिन वहीं रहे। विदाई के वक्त जहांगीर ने कुँवर जगतसिंह को एक मोतियों की माला भेंट की।

19 मई, 1623 ई. को जहांगीर की माता का देहांत हो गया और इस अवसर पर महाराणा कर्णसिंह ने बड़ी चतुरता दिखाई। महाराणा ने अपने पुत्र कुँवर जगतसिंह को जहांगीर के पास भेजा और सांत्वना दी व 4 हाथी भेंट किए। जब जहांगीर ने जगतसिंह से पूछा कि राणा ने फ़ौज क्यों नहीं भेजी, तो जगतसिंह ने बहाना बनाकर कहा कि राजा भीम के बागी होने की वजह से महाराणा बड़े दुःख में हैं।

महाराणा कर्णसिंह

1625 ई. में कुंवर जगतसिंह ने ढुंढाड़ के एक नरुका राजपूत को किसी कुसूर पर मरवा डाला। उन नरुका राजपूत के छोटे भाई ने पगड़ी के स्थान पर रुमाल बांधा और कुंवर जगतसिंह को मारने का प्रण लेकर उदयपुर की तरफ कूच किया।

महाराणा प्रताप के तीसरे पुत्र साहसमल के बेटे भोपतराम के शागिर्द चारण खेमराज भी इस वक़्त बाठरड़ा से उदयपुर की तरफ आ रहे थे। खेमराज ऊंटाला गांव के निकट स्थित धारता गांव के चारण दधिवाड़िया जयमल के पुत्र थे।

खेमराज चारण ने देखा कि एक राजपूत एक सैकलगर के यहां रुका और उसको अपनी तलवार देते हुए कहा कि “ये ले 5 रुपए और इसकी धार इतनी तेज कर दे कि इसके जैसी तलवार की धार अब तक किसी ने न करवाई हो।”

खेमराज चारण ने विचार किया कि ये राजपूत यहां का नहीं लगता है, जरूर किसी से बैर निकालने के लिए यहां आया होगा। नरूका राजपूत ने सैकलगर से 2 घड़ी रात रहे तलवार लेने का करार किया और फिर वहां से चले गए।

उनके जाने के बाद खेमराज चारण ने भी एक दूसरे सैकलगर के यहां जाकर उसको 5 रुपए के बदले अपनी तलवार तेज धारदार करने के लिए दी और 4 घड़ी रात रहे तलवार लेने का करार किया। 5 घड़ी रात रहे खेमराज चारण ने एक अमव्वा दुपट्टा अपने सिर पर बांधा और उसी रंग का अंगरखा पहनकर अपने घोड़े पर सवार हुए और तलवार लेकर निकल पड़े।

खेमराज जल्दी से घोड़ा दौड़ाते हुए भटियाणी चौहट्टे होते हुए शीतला माता के पास पहुंचे। बहादुर नरूका राजपूत भी अपनी तलवार लेकर बाटेश्वर महादेव और महौली चौहट्टे में होते हुए वहीं आ पहुंचे।

कुँवर जगतसिंह प्रतिदिन खरगोशों के शिकार के लिए 20-30 शागिर्द लोगों के साथ कृष्णपोल दरवाज़े से बाहर जाया करते थे। उस दिन भी कुंवर जगतसिंह कृष्णपोल दरवाज़े से बाहर निकल रहे थे। महाराणा कर्णसिंह दिलकुशाल महल के गोखड़े में से अपने पुत्र कुँवर जगतसिंह को घोड़े पर सवार होकर महल से बाहर निकलते देख रहे थे।

नरूका राजपूत ने खेमराज से कहा कि “मेरा घोड़ा तेरे घोड़े को देखकर बिगड़ रहा है, इसलिए दूर रह।” खेमराज ने जवाब दिया कि “मेरा घोड़ा है, घोड़ी नहीं। इसके अलावा अगर तेरा घोड़ा बिगड़ता है, तो तू ही दूर चला जा।” नरूका राजपूत ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि उनका लक्ष्य कुछ और था।

जैसे ही कुँवर जगतसिंह कृष्णपोल दरवाज़े से बाहर निकले कि तभी नरूका राजपूत ने आवाज देकर कहा कि “कुंवर, मैं तुमसे अपने भाई का बैर मांगता हूं।” इतना कहकर नरूका राजपूत ने अपनी तलवार झटके से म्यान से बाहर निकाली और कुंवर जगतसिंह की तरफ अपना घोड़ा दौड़ाया।

खेमराज चारण पहले ही वहां सतर्क खड़े थे, उन्होंने फौरन तलवार निकाली और नरूका राजपूत पर अपनी तलवार से तिरछा वार किया, जिससे राजपूत का सिर और तलवार वाला हाथ धड़ से अलग हो गया। वहां खड़े सभी लोग इस दृश्य को देखकर हतप्रभ रह गए।

महाराणा कर्णसिंह को एक बार तो लगा कि उनके पुत्र के प्राण चले गए, परन्तु अगले ही क्षण कुँवर जगतसिंह को भीतर आता देखकर महाराणा के प्राणों में प्राण आए। कुँवर जगतसिंह के साथी राजपूतों ने महाराणा कर्णसिंह से कहा कि “राजकुमार के प्राण बचाने वाला वो शख्स किसी दैवीय मनुष्य से कम नहीं था, एकलिंग जी की कृपा से राजकुमार बच गए।”

महाराणा कर्णसिंह को खेमराज के बारे में मालूम हुआ, तो फौरन खेमराज को बुलावा भिजवाया और खेमराज को गले लगाकर कहा कि “महाराणा कर्णसिंह ने खेमराज से कहा कि अब तक तो मेरे 3 बेटे थे, अब तुम्हारे समेत 4 हो गए।”

महाराणा कर्णसिंह ने खेमराज का खर्च अपने सभी पुत्रों के समान ही मानकर दे दिया। कुंवर जगतसिंह भी खेमराज को भाई कहने लगे। जब महाराणा जगतसिंह राजगद्दी पर बैठे, तब उन्होंने खेमराज को सत्तर हजार रुपए सालाना आमदनी की जागीर दे दी, जिसमें से एक ठीकरिया गांव भी शामिल था। बाद में उस गांव का नाम खेमपुर रखा गया।

उदयपुर राजमहल का द्वार

फरवरी, 1628 ई. में ख़ुर्रम अपने भाइयों को उत्तराधिकार संघर्ष में पीछे छोड़कर मुगल सल्तनत के तख्त पर बैठा और शाहजहां के नाम से मशहूर हुआ। तख़्त पर बैठते ही इसने अपने कई सिपहसालारों के मनसब में वृद्धि कर दी।

मार्च, 1628 ई. :- महाराणा कर्णसिंह के देहांत की खबर शाहजहां तक पहुंची, तो उसने महाराणा जगतसिंह के लिए एक खिलअत, फूल कटार समेत एक जड़ाऊ खपवा, एक जड़ाऊ तलवार, एक खासा घोड़ा, सोने और चांदी से सुसज्जित एक हाथी, सांत्वना का फरमान और पांच हज़ारी मनसब का फरमान राजा वीरनारायण बडगूजर के हाथों भिजवाया।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

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