1608 ई. में महाराणा अमरसिंह ने महाबत खां को परास्त करके मेवाड़ में तैनात मुगल थाने हटा दिए। केवल चित्तौड़गढ़ में सगरसिंह सिसोदिया व मांडल में जगन्नाथ कछवाहा के नेतृत्व में शाही फ़ौजें तैनात रहीं। महाराणा अमरसिंह ने मांडल के मुगल थाने को अपना लक्ष्य बना लिया और उसे जीतना तय किया।
जगन्नाथ कछवाहा राजा मानसिंह के काका थे। जगन्नाथ कछवाहा ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और प्रसिद्ध तोमर वीर रामशाह जी व बदनोर के रामदास जी राठौड़ जगन्नाथ कछवाहा के हाथों से ही वीरगति को प्राप्त हुए थे। जगन्नाथ कछवाहा ने 1584 ई. में महाराणा प्रताप के विरुद्ध दो वर्षों तक छापामार लड़ाइयों में भाग लिया था। आखिरकार अब प्रतिशोध का समय निकट आया।
महाराणा अमरसिंह ने रावत अचलदास शक्तावत के ज्येष्ठ पुत्र नरहरिदास शक्तावत को मेवाड़ की सेना की कमान सौंपकर मांडल पर आक्रमण करने के लिए विदा किया। इस युद्ध का वर्णन समकालीन सदी के ग्रंथ राणा रासो में विस्तार से दे रखा है, जो कुछ इस तरह है :-
“नरहरिदास अपने साथियों सहित जगन्नाथ की ओर बढ़ा। उस वीर ने कवच, शिरस्त्राण आदि साज नहीं सजे। वह केवल केसरिया बाना पहने हुए था। मध्याह्न के सूर्य के समान नरहरिदास क्रोध से प्रज्वलित होकर जगन्नाथ पर झपटा। रोष की आग से प्रज्वलित कराल एवं कठोर वह रावत नरहरिदास शस्त्र उठाकर सवेग बढ़ा और लड़ने लगा।
दूसरी ओर से शंभू सदृश एवं क्रुद्ध कछवाहा वीर के बढ़ने पर संसार में कोलाहल मच गया। शस्त्र द्वारा परस्पर एक दूसरे को नष्ट करने लगे। भालों के निरंतर प्रहार से वक्षस्थल पर धमाके से होने लगे। गज घटायें घमघमाने लगीं। योद्धागण तमतमाकर समान रूप से तलवारें टकराने लगे। जोरों से रक्त प्रवाहित होने लगा।
जिस प्रकार बिजली कड़ककर गर्जना के साथ कांसे के बर्तन पर गिरती है, उसी प्रकार सूर्य सदृश नरहरिदास शत्रुओं पर आपत्तियां छाने लगा और उन्हें भस्मसात करने लगा। पृथ्वी के नाशकर्ताओं को वह मूंछों वाला वीर उछालकर पछाड़ने लगा। सोत्साह पूंछधारी अश्वों को वह उठा-उठाकर पछाड़ देता था। इसी प्रकार आक्रमण करता हुआ और झपटता हुआ गुत्थमगुत्था होकर वह शत्रुओं के मुख पर कराघात करने लगा।
स्थिर होकर वह शत्रुओं को पकड़कर ऊपर की ओर घुमाते और थापड़ मारकर नीचे गिराने लगा। दौड़कर तुण्डों मुण्डों को वह काट देता था एवं प्रचंड बाहु उठाकर सबों के सम्मुख विपक्षी को भेद देता था। प्रत्यक्ष में उस रणक्षेत्र से कोई नहीं हटता था। यह युद्ध हिंदुओं में हो रहा था। एक ओर से रावत नरहरिदास और दूसरी ओर से राजा जगन्नाथ कछवाहा लड़ रहे थे।
एक ओर से सामंत गज सदृश जगन्नाथ कछवाहा क्रुद्ध हो गया और दूसरी ओर से अचलदास का पुत्र नरहरिदास बढ़ा। शिव के उन्मीलित तृतीय नेत्र के समान तलवारें आपस में टकराने लगीं। वे जहां-तहां आग बरसाती थीं और उस ज्वाला में शत्रु झुलस रहे थे। योद्धाओं के गुत्थमगुत्था होने पर शव रक्त रंजित हो जाते थे।
साथ ही असंख्य मस्तक कट पड़ते थे। घायल वीर कुहनी के बल चलकर शस्त्राघात से भयानक एवं बलशाली वीरों का शरीर काट देते थे। संसार के भयभीत प्राणी भागने लगे। युद्ध में तलवारों, भालों और समान रूप से चापसंधानित बाणों की वर्षा हो रही थी, जिसकी आड़ में सूर्य छिप जाता था। काकुत्स्थ वंशी जगन्नाथ कछवाहा दांत पीसकर बलिष्ठ हाथ पैरों से अपने शत्रुओं को गिराने लगा।
क्षत्रिय वीर उच्छृंखल हाथियों के दांत पकड़कर उनसे भिड़ने लगे। उनके द्वारा प्रमत्त हाथियों के कुम्भस्थल एवं भुसुंड कट गए, मुंड फट गए और शरीर के खण्ड-खण्ड हो गए। घोड़ों के कंधों की सन्धियाँ कट गईं और वे एक दूसरे के ऊपर पड़ गए। धमाके के साथ प्रहारित शस्त्रों के घावों से छके हुए सधीर योद्धा अधीर होकर एवं मस्तक धुनकर नष्ट हो गए।
इस प्रकार युद्धरत वह वीर नरहरिदास शिव के लिए मस्तक, पृथ्वी के लिए धड़, देवी के पात्र के लिए रक्त और मेवाड़ नरेश महाराणा अमरसिंह के लिए प्राण समर्पित करके बैकुंठ पहुंच गया। आकाश से देवतागण उसकी जय-जयकार करने लगे और यवन बादशाह का सुभैशी जगन्नाथ कछवाहा बुरी तरह तलवारों से घायल होकर रणभूमि छोड़कर चला गया।
क्षात्रवीर नरहरिदास कटा पड़ा था। उसे रणक्षेत्र में खोजा गया। उसके प्रत्येक अंग पर घाव लगे थे। उस वीर के आसपास गीदड़ चक्कर लगा रहे थे। शरीर पर कौवे चोंच मार रहे थे। भूलकर भी नरहरिदास ने पीछे कदम नहीं हटाया था। वह वीर चूर-चूर होकर नष्ट हो गया था। उसके हाथ, पैर और मस्तक कटकर अलग हो गए थे। उसकी आंतें आभिषाहारियों के दांतों द्वारा चबाई गईं।
जो कुछ मुस्लिम इस लड़ाई में लड़े थे, वे मीर भी पीर के पास पहुंच गए। उनके वस्त्र फटकर चीर-चीर हो गए। वे अपनी कांति नहीं रख सके और निस्तेज हो गए।
वीर पुरुषों का शुरत्व जाग रहा था। संधीर वीर धैर्य से टकटकी लगाकर युद्धभूमि में डटे रहे। उन्होंने देवांगनाओं को छल लिया। इतने में सूर्यास्त हो गया। जूझने वाले योद्धा तलवार से तलवार मिलाकर स्वर्ग पहुंच गए। नरहरिदास की क्रोधाग्नि प्रज्वलित ही रही। उसने सांसारिक स्नेह छोड़कर भयंकर सेना को अपने पैरों तले दबाया और यश अर्जित किया।
तदनन्तर नरहरिदास भूसंभूत युद्ध में विजय का श्रेय महाराणा अमर को दिलाता हुआ स्वयं आवेश में आकर शिव की ज्योति में लीन हो गया। योग के आठों अंगों के साधने पर योगी की जो गति होती है, वही ऊर्ध्व गति प्राप्त कर उसने अपने शरीर का उद्धार किया।”
इस प्रकार ग्रंथ राणा रासो में रावत नरहरिदास शक्तावत के बलिदान का अद्भुत वर्णन किया गया है। इस महत्वपूर्ण युद्ध में रावत नरहरिदास शक्तावत स्वयं वीरगति को प्राप्त हुए, परन्तु मेवाड़ को विजय दिला गए। विपक्षी दल में अधिकतर कछवाहा राजपूत व कुछ मुस्लिम थे, जिन्हें रणभूमि छोड़नी पड़ी।
रावत नरहरिदास शक्तावत की छतरी मैनाल में स्थित है, जिसकी वर्तमान स्थिति दयनीय है। जो भी स्थानीय निवासी इस लेख को पढ़ रहे हैं या बांसी के शक्तावत राजपूत विशेष रूप से इस तरफ ध्यान दें। इस छतरी का जीर्णोद्धार अति आवश्यक है, न सिर्फ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, बल्कि एक वीर पुरुष को उचित सम्मान देने के दृष्टिकोण से भी।
रावत अचलदास व रानी रतन कँवर के वीर पुत्र रावत नरहरिदास शक्तावत के साथ उनकी 5 रानियां सती हुईं, जिनमें से 3 के नाम कुछ इस तरह हैं :- 1) अचलदास देवड़ा की पुत्री रानी राम कँवर 2) राजसिंह राठौड़ की पुत्री रानी रुक्मावत 3) खुम बलनोत तंवर की पुत्री रानी चंद्रामेट।
इस युद्ध में राव खंगार कछवाहा के पुत्र नारायणदास भी लड़े थे। इस युद्ध को धनणेर का युद्ध कहा जाता है। जगन्नाथ कछवाहा इस लड़ाई में सख़्त ज़ख्मी हो गए और घावों के चलते कुछ ही दिन बाद इसी वर्ष मांडल में उनका देहांत हो गया। मांडल में जगन्नाथ कछवाहा की 32 खंभों की छतरी स्थित है, जो बड़ी प्रसिद्ध है।
इस छतरी के मध्य में एक शिवलिंग स्थित है। यहां श्रावण मास की पूर्णिमा से 15 दिन पहले मेला लगता है। मेले के दौरान प्रत्येक दिन महादेव जी का अलग-अलग प्रकार से श्रृंगार किया जाता है। इस छतरी का निर्माण जगन्नाथ कछवाहा के देहांत के कुछ वर्षों बाद मुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था।
पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)