वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप (भाग – 46)

1576 ई. के जुलाई से अक्टूबर माह के मध्य महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की पड़ोसी रियासतों से सम्पर्क स्थापित किया और इस मामले में उन्होंने काफी हद तक सफलता प्राप्त की।

महाराणा प्रताप चाहते थे कि मुगलों का जो विरोध मेवाड़ कर रहा है, उसी तरह पड़ोसी रियासतें भी मुगल विरोधी गतिविधियां करे।

महाराणा प्रताप ने अपने 5 मित्रों को पत्र लिखकर मुगल विरोधी कार्यवाहियां करने के लिए कहा, जिसे उनके इन मित्रों ने सहर्ष स्वीकार किया। ये मित्र थे :-

1) मारवाड़ के राव चन्द्रसेन राठौड़ :- इनका जन्म 1541 ई. में हुआ। इनके पिता राव मालदेव राठौड़ थे। राव चन्द्रसेन ने अकबर के नागौर दरबार में अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना किया था।

राव चंद्रसेन राठौड़

महाराणा प्रताप की बहन सूरजदे जी से राव चन्द्रसेन का विवाह हुआ था। राव चंद्रसेन को मारवाड़ का राणा प्रताप, प्रताप का अग्रगामी, भूला बिसरा राजा भी कहा जाता है।

राव चन्द्रसेन राठौड़ के पास मारवाड़ का राज तो नहीं था, लेकिन महाराणा का खत मिलने पर इन्होंने अपने दम पर मारवाड़ के पहाड़ी इलाकों में मुगल छावनियों पर हमले करना शुरू कर दिया।

2) जालौर के नवाब ताज खां :- इन्होंने पठान होते हुए भी महाराणा प्रताप का साथ दिया व अरावली के दोनों तरफ मुगल छावनियों पर आक्रमण करना शुरु कर दिया। इनके बारे में इससे अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है।

3) बूंदी के राव दूदा हाडा :- ये बूंदी के राव सुर्जन हाडा के बड़े पुत्र थे। 1569 ई. में जब राव सुर्जन ने अकबर की अधीनता स्वीकार की, तो राव दूदा को भी मुगल दरबार में हाजरी देनी होती थी।

मौका देखकर ये वहां से निकले और महाराणा प्रताप का साथ देने मेवाड़ आए। बाद में इन्होंने बूंदी व उसके आसपास के क्षेत्र में मुगल विरोधी कार्रवाइयां की।

4) सिरोही के राव सुरताण देवड़ा :- इनका जन्म 1559 ई. में हुआ। इन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में छोटी-बड़ी कुल 52 लड़ाईयां लड़ी।

महाराव सुरताण देवड़ा

इनका नाम इतिहास में एक गुमनाम योद्धा की तरह ही रहा, लेकिन इनके बारे में एक दोहा प्रचलित है कि “नाथ उदयपुर न नम्यो, नम्यो न अरबुद नाथ” अर्थात ना मेवाड़ के महाराणा प्रताप ने अपना सिर झुकाया और ना ही सिरोही के राव सुरताण ने।

17 वर्षीय राव सुरताण के पास जब महाराणा का खत पहुंचा, तो इन्होंने देवड़ा राजपूतों को साथ लेकर सिरोही की पहाड़ियों में विद्रोह कर दिया।

5) ईडर के राय नारायणदास राठौड़ :- ये महाराणा प्रताप के ससुर थे व महाराणा से बराबर सम्पर्क में रहते थे। इन्होंने गुजरात-मेवाड़ सीमा व ईडर की पहाड़ियों में मुगल सल्तनत से बगावत का शुभारम्भ कर दिया।

इस तरह हल्दीघाटी युद्ध के बाद मात्र तीन महीनों में महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के साथ-साथ मारवाड़, सिरोही, जालौर, बूंदी व ईडर में अकबर के विरोधी खड़े कर दिए। राजपूताने में अचानक जगह-जगह हुए इस विद्रोह की गूंज अकबर के कानों तक पहुंची।

इधर जिस वक्त गोगुन्दा में मुगल फौज कैदियों की तरह दिन काट रही थी, तभी महाराणा प्रताप ने राजपूतों व भीलों को साथ लेकर गोडवाड़ पर हमला किया व मुगल छावनियों को ध्वस्त कर लूटते हुए कुम्भलगढ़ पहुंचे।

हल्दीघाटी युद्ध के अगले ही महीने महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को मेवाड़ की नई राजधानी घोषित कर दी। कुम्भलगढ़ में रहते हुए महाराणा प्रताप ने अगस्त-सितंबर, 1576 ई. में तीन ताम्रपत्र जारी किए।

इन ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि मेवाड़ के जो क्षेत्र मुगल सेना के कब्जे में आ गए थे, महाराणा प्रताप उन पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयास कर रहे थे।

महाराणा प्रताप ने ये क्षेत्र अपने समर्थकों को देना शुरू कर दिया, जिससे मेवाड़ में मुगलों की स्थिति कमजोर व महाराणा की स्थिति सुदृढ होने लगी।

कुम्भलगढ़ दुर्ग

महाराणा प्रताप ने दो गांव व तीन रहट आचार्य बलभद्र को दान में दे दिए और कुम्भलगढ़ में तीन ताम्रपत्र जारी किए, जो कुछ इस तरह हैं :-

1) सथाणा का ताम्रपत्र :- सथाणा गांव उदयपुर के उत्तर पूर्व में कांकरोली स्टेशन से लगभग 12 मील दूर स्थित है। इस ताम्रपत्र का छायाचित्र कमिश्नर कार्यालय उदयपुर में सुरक्षित है। इस ताम्रपत्र में 10 पंक्तियाँ लिखी हैं।

भाद्रपद शुक्ला पंचमी संवत १६३३ अर्थात 24 अगस्त, 1576 ई. को मंगलवार के दिन महाराणा प्रताप के आदेश से भामाशाह कावडिया ने यह ताम्रपत्र लिखकर आचार्य बालाजी बा किसनदास बलभद्र को सथाणा गांव प्रदान किया।

ताम्रपत्र की अन्तिम पंक्तियों में यह भी लिखा है कि आचार्य बलभद्र का पुराना ताम्रपत्र चोरी हो गया था, इसलिए इसे नया कर दिया गया। इस ताम्रपत्र की प्रतिलिपि डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक मेवाड़ एंड दी मुगल एम्पेरर्स में प्रकाशित की है।

2) पीपली का ताम्रपत्र :- पीपली गांव सथाणा गांव से 8 मील दूर स्थित है। ये गांव उदयपुर से उत्तर-पूर्व में कांकरोली स्टेशन से लगभग 4 मील दूर स्थित है। इस ताम्रपत्र में 8 पंक्तियाँ लिखी हैं। मूल ताम्रपत्र खो गया था, इसलिए इसे नया कर दिया गया।

भाद्रपद शुक्ला एकादशी संवत १६३३ अर्थात 30 अगस्त 1576 ई. को सोमवार के दिन महाराणा प्रताप के आदेश से भामाशाह कावडिया ने यह ताम्रपत्र लिखकर आचार्य बालाजी बा किसनदास बलभद्र को पीपली गांव प्रदान किया।

3) मही का ताम्रपत्र :- इस ताम्रपत्र पर 9 पंक्तियाँ लिखी हैं। इस ताम्रपत्र के अनुसार संवत १६३३ की आश्विन कृष्णा षष्ठि अर्थात 24 सितंबर, 1576 ई. को शुक्रवार के दिन महाराणा प्रताप ने आचार्य बलभद्र को मही अर्थात मोही गांव में तीन रहट प्रदान किए।

इस ताम्रपत्र को भी भामाशाह कावडिया ने ही लिखा है। अन्तिम पंक्तियों में लिखा है कि मूल ताम्रपत्र खो जाने ये नया कर दिया गया। मोही वर्तमान में भाटी राजपूतों का ठिकाना है।

सथाणा, पीपली व मोही तीनों ही गांव वर्तमान राजसमंद जिले में स्थित हैं। तीनों ही ताम्रपत्रों की शुरुआत में भगवान श्री राम की जय कही गई है। फिर बाई ओर गणेश जी व दाई ओर कुलदेवता एकलिंग जी के नामों का उल्लेख है।

तत्पश्चात भाले का चिह्न है, जो कि महाराणा प्रताप के पत्रों व ताम्रपत्रों पर आवश्यक रूप से होता ही था। उपर्युक्त तीनों ही ताम्रपत्र भामाशाह जी कावड़िया द्वारा लिखे गए।

पोस्ट लेखक :- तनवीर सिंह सारंगदेवोत (लक्ष्मणपुरा – मेवाड़)

2 Comments

  1. ANUPAM PANDEY
    May 28, 2021 / 7:13 am

    aapne likha hai ki Rao Chandrasen Raothod jo Raja Maaldev ke bade putra the unke pass marwaad nhi tha fir bhi inhone rana pratap ki madad ki. Agar inke pass maarwaad nhi tha to maarwaad pr kiska shashan tha? Aur kya kabhi Raam Singh ji Raja Maaldev ke baad Maarwaad ke raja bne the jaisa ki Maharana Pratap serial me dikhaya gya hai?

    • May 29, 2021 / 2:12 am

      रामसिंह नहीं, राव चंद्रसेन के भाई उदयसिंह का राज रहा, जो इतिहास में मोटा राजा के नाम से प्रसिद्ध रहे।

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